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क्यों कबूतर की सफेदी

27 जनवरी 2015

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क्यों ? क्यों कबूतर की सफेदी क्यों सहिष्णुता के मोती क्यों गगन का नीलापन ये क्यों अमन के ये साथी और प्यार के वे पाती धुंधलके में खो रहे हैं ? प्यार के दिलबाग नगमे कल के वे रंगीन सपने वे दिल-अजीज़ अपने पराये क्यों हो रहे हैं? सांप्रदायिक सौहर्द्र की वो भावना क्यों खो रही है? आपस में लिपटी जैतून की दो पत्तियाँ दो पत्तियाँ क्यों रो रही हैं? क्यों बारूद का काला धुंआ रूक-रूक के गगन में उठता और धुएँ का कालापन सपने सबके लील जाता? क्यों वो गोली सनसनाती उद्विग्न छाती चीर जाती प्रतिशोध की वो अग्नि-लौ केवल मृत्यु को बुलाती क्यों भुशुण्डीयों को थामे हाथ वो न कॉप जाते क्यों न होती नम वो आखें क्यों न थमती क्रूर साँसे? क्यों सुबह का उजाला सैकड़ों की जान लेता औ’ सुनहला दिन वो सारा गम विरह में बीत जाता? क्यों ये प्यारी रात सारी त्रास और भय से गुजारी और जीने की आस सारी दुखित मन ने छोड़ डाली? क्यों अन्याय का प्रतिशोध करने दिल तो है चाहता पर होठ थरथराता औ’ दुख के मारे वाक्-तंतु फट सा जाता? शुभ मनोरथ के वो मोती पिरोता पर टूट जाते हाय क्यों ऐसा ये होता? दिल एक मानव का है रोता अर्धमृत मानव के अंदर जिजिविषा चीत्कार करती क्यों न दूसरा ह्रदय फिर दुःख समझता, दुःख को हारता? क्यों दानवता यह कुरूप रूप सबको दिखाती, सबको रुलाती मनुजता कमज़ोर पड़कर जाने कहा छुप-छुपाती? पर वो दिखती हिम्मत जुटाकर कभी गाँधी टेरेसा बनकर और जब वो पाँव धरती युग बदलती! दुःख के बादल दूर करती और सबके कष्ट हरती सुख अमन फिर फ़ैल जाता प्यार का फिर गुल खिलाती! मिलने को उत्सुक भुजाएं हाँ परस्पर लिपट जातीं दुःख पुराने भूलकर उस मिलन में खो सी जातीं| - सुमित प्रणव (1 अक्टूबर 2000)

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