सिनेमा के बहाने
हमारे यहाँ जैसे ही कोई औरत अपने जिस्म की बात करती है, उस पर नाज़ करती है, ज्यादातर मर्दों के कमर के नीचे दर्द क्यूँ शुरू हो जाता है(और मर्द ही क्यों, कई मर्दानियों के पेट में भी मरोड़ उठने लगती है ? कोई लड़की जब अपनी छातियाँ निकाल कर चलती है तो वो छिनाल हो जाती है और मर्द लोग सारा दिन लुंगी/चड्डी/बॉक्सर में घूमते हैं तो उनके संस्कार नहीं लटकते? आखिर हमारे समाज में सेक्सुअलिटी इतना बड़ा हव्वा क्यूँ है? क्या ये किसी भी इंसान की इंडिविजुअलिटी का हिस्सा नहीं है? सेक्सुअलिटी ही ये तय करती है ना की इंसान के तौर पर हम अपनी देह को कैसे देखते हैं, कैसे कपडे पहनते हैं, स्त्री, पुरुष या दोनों से अलग ही, कैसे कपड़े पहनते हैं, कैसे चलते हैं, कैसे बोलते हैं, दूसरों से कैसा व्यवहार करते हैं उनके बारे में कैसा महसूस करते हैं, किसकी तरफ आकर्षित होते हैं, किससे प्यार करते हैं और भी बहुत सी चीजें जो हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा होती/बनती हैं वो हमारी सेक्सुअलिटी से ही डिफाइन होती है। तो फिर क्यूँ स्त्री-विमर्श के देह-विमर्श तक सीमित होने का तंज़ कसा जाता है। मेरी समझ में किसी भी इंसान का पहला अधिकार उसके शरीर पर ही होता है और आप महिला से उसके देह को कैसे ट्रीट करेगी इसका हक़ छीन कर क्या स्त्री-विमर्श का खेल खेलेंगे? ऐसा सिर्फ वही लोग कर सकते हैं जो इस स्त्री को एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझते। शरीर को ग़ुलाम बना कर कौन सी पारलौकिक आज़ादी देंगे आप महिलाओं को? और सबसे पहली बात तो ये की आप होते कौन हैं किसी को आज़ादी देने वाले? आप सिर्फ रास्ता दे सकते हैं और वही रोक के खड़े हैं और कह रहे हैं आज़ादी ले लो, आज़ादी ले लो। ऐसी आज़ादी अपनी पॉकेट में रखो मियाँ, हमें नहीं चाहिए। आपकी मर्दानगी के किस्से शहर की दीवारों और पेशाबखानों में हमने बहुत पढ़े हैं। हमें हमारे सपने बुनने दो और हमारी कहानियाँ कहने दो। भोपाल सिर्फ शहर नहीं बल्की एक पूरी संस्कृति है जिसको कैमरे में कैद करने की कोशिश लोगों ने बारहा की है. ये महज़ एक संयोग ही था की इस फिल्म देखने उसी शहर के उसी मॉल में पंहुचा था जहाँ ये फिल्म शूट हुई थी. जब अपनी सीट पर पहुंचा तो थिएटर लगभग फुल था. सुबह फेसबुक पर स्टेटस देखा था, - निहलानी ने बिना पैसे लिए लिपस्टिक अंडर माय बुरखा का जो प्रमोशन कर दिया है वो शायद लाखों खर्च करके भी नहीं मिल सकता था. मुंबई फिल्म में स्टैंडिंग ओवेशन और विदेशों में सराहे जाने के बावजूद फिल्म की थिएट्रिकल रिलीज़ के लिए क्या मशक्कतें आईं वो लगभग सभी जानते होंगे. मज़े की बात ये है की इन सब के बीच ऐसा लगने लगा है जैसे पहलाज निहलानी का नाम उनके वजूद से ऊपर उठकर एक मेटाफर में तब्दील हो गया है जिसको चुनौती दिए बगैर हाल के दिनों में कोई ढंग का सिनेमा सामने नहीं आ सकता. खैर पहले ही हफ्ते में दर्शकों का इतना रुझान उम्मीदें पैदा करता है. हाल के दिनों में बॉलीवुड में स्त्री-केन्द्रित विषयों लगभग हर छोटा बड़ा फिल्मकार फिल्में बना रहा है लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ऐसा रेस्पोंस मिलने वाली ये अपनी तरह की इकलौती फिल्म है. कुछ लोगों का मानना है की ऐसा इसलिए है क्यूँकी सब्वर्जन की आड़ में कहानी में कामुकता का तड़का लगाया गया है. हालाँकि ये बात तय है की निर्माता प्रकाश झा और निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव की राय इनसे बिलकुल अलग होगी. जोनर की बात करें तो अलंकृता उन फिल्मकारों की कतार में नहीं हैं जो सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन या पैसे बनाने का एक जरिया मानते हों. वो मानती हैं की बाकी सारी पब्लिक स्पेसेस की तरह बॉलीवुड में कहानी कहने का हक भी मर्दों ने अपने कब्जे में कर रखा है.बकौल अलंकृता ये फिल्म बनाकर उन्होंने इस लिमिटेड स्पेस में मौज़ूद तमाम वर्जनाओं को चुनौती देने की कोशिश भी की है. फिल्म की कहानी कहने के लिए उन्होंने बैक ड्राप में भोपाल शहर को रखा है. यह फिल्म पितृसत्तात्मक समाज के ज़बडों में फंसी हुई, कराहती और साथ ही बच कर निकलने की पूरी जद्दोज़हद भी कर रही पांच अलग उम्र की महिलाओं, उनके सपनों और इनसे उपजे विरोधाभासों की कहानी कहती है. हमारे समाज के मध्यमवर्गीय तबके में शायद ही कोई महिला हो जिसे ऐसी जद्दोज़हद का सामना रोज़मर्रा की जिंदगी में ना करना पड़ता हो. पहले किरदार में देब्युटेंट प्लबिता बोरठाकुर एक टीनएज लड़की का किरदार निभा रही है जो घर से बुरखा पहन कर निकलती है और कॉलेज में जींस और स्कर्ट के लिए आवाज़ उठाती है, लडती है. अपनी आज़ादी के मतलब तलाशने के लिए उसे चुराए कपड़े पहनने या सिगरेट पीने से कोई परहेज़ नहीं है. दूसरी किरदार भी देब्युटेंट और स्माल स्क्रीन एक्टर आहाना कुमरा है जो एक ब्यूटी पारलर चलाती हैं और आर्थिक रूप से स्वतंत्र तो है लेकिन भावनात्मक तौर पर दो मर्दों और अपनी मां (सोनल झा) के सपने इन तीनों के बीच फंसी हुई है. उसे इस बात का एहसास है की उसकी मां सत्रह सालों से एक न्यूड मॉडल बनने का काम अपनी मर्ज़ी से कर रही है और उसकी शादी मर्जी के खिलाफ इसलिए कर रही है क्यूंकि वो लड़का उसे घर बना कर दे रहा है. ( उसके सपनों का घर) इसलिए उसे अपनी मर्जी से शारीरिक सबंध बनाने से कोई परहेज़ नहीं है. तीसरे किरदार में इंडस्ट्री की बेहतरीन अदाकारों में से एक कोंकणा सेन शर्मा एक आदर्श गृहणी का किरदार निभा रही है जो बीवी और मां होने के साथ-साथ अपनी कंपनी की सबसे अच्छी सेल्स गर्ल भी है. वो पति को बिना बताये जॉब तो कर लेती है लेकिन खराब शारीरिक हालत के बावजूद पति को सेक्स के लिए ना नहीं कह पाती. चौथे किरदार में रत्ना पाठक ने एक ऐसी विधवा का किरदार निभाया है जो हवाई महल नाम की एक पुरानी बिल्डिंग में अपने सारे किरायेदारों के कुनबे के साथ रहती है. वैसे तो सारे मुहल्ले के लिए दुःख और सुख में खड़ी रहनेवाली बुआ जी लेकिन खुद उनके पास अपना कहने को चंद अधूरे सपनों के अलावा और कुछ भी नहीं है जिन्हें वो दुनिया की निगाहों से छुपकर सस्ती कामुक क़िताबों में ढूंढ रही हैं. स्विमिंग क्लास जाने के लिए उन्हें सत्संग जाने का बहाना बनाना पड़ता है और किसी पुरुष के शारीरिक शौष्ठव पर नज़र जाने से उनका सर नीचा हो जाता है लेकिन फिर भी वो लिपस्टिक वाले सपने देखना नहीं छोड़ती. पुरुष किरदारों में अहम सुशांत सिंह और विक्रांत मैसी ने पूरा न्याय किया है जो बिलकुल रोज़मर्रा के टिपिकल मर्द की तरह नज़र आते हैं जिनमें से पहले की मर्दानगी को निठल्ले बैठने और विवाहेतर सम्बन्ध बनाने से ठेस नहीं पहुँचती लेकिन एक कंडोम के इस्तेमाल से टूट सकती है. और दूसरा जिसके हाथ से लड़की बाहर जाती दिखे तो वो गश्ती हो जाती है. सुहानी कँवर के साथ मिलकर अलंकृता ने सधी हुई स्क्रिप्ट लिखी है और मंगेश धाकड़े ने बैकग्राउंड स्कोर अच्छा बनाया है. ग़ज़ल धालीवाल और बेहतर डायलॉग लिख सकते थे लेकिन फिर भी पता नहीं क्यूँ यहाँ ये बताना ज़रूरी लगता है की ' मेरी इस्तेमाल की हुई चीज़ आप मुंह में कैसे लेंगी' पर तालियाँ ज़रूर पड़ी थीं. एंडिंग की बात करें तो सुखान्त की जबरदस्ती ना होते देखना सुखद था, जबकी ये पहले भी साबित हो चुका है की फिल्म की सफलता के लिए ऐसा करना कतई जरुरी नहीं है फिर भी हमारे यहाँ के ज्यादातर निर्देशक इस जबरदस्ती से बाज नहीं आते. खैर फिल्म का पांचवा किरदार जो की अपने आप में कहानी का प्रोटेगोनिस्ट नैरेटिव लिए हुए है वो है रोज़ी. अब सवाल ये उठता है की आखिर रोज़ी है कौन? जो उनके सपनों को लिपस्टिक से रंगीन किये दे रही है? क्या वो हम सबमें छुपी हुई नहीं है? क्या हमने अपने सपनों को छुप के रंगने की कोशिश नहीं की? क्या हमने अपनी आज़ादी सिगरेट के धुंए में उड़ाने की कोशिश नहीं की ? अगर रोहित के सपने रंगीन हो सकते हैं तो रोज़ी के क्यूँ नहीं? ऐसे ही सवालों पर जाकर फिल्म ख़तम होती है. इस उम्मीद के साथ की कहानियाँ भले झूठी हों लेकिन उनमें एक सच्ची उम्मीद हमेशा छुपी होती है.
माय टेक
ये फिल्म दिखाती है की पितृसत्ता एक ऐसी सड़ी हुई व्यवस्था है जिसने हमारे अंदर की संवेदना को इतना कुचल दिया है की इनोसेंस नाम की कोई चीज़ हमारे समाज में बच नहीं रही। चाहे 17-18 साल की लड़की हो या कोई अधेड़ उम्र की विधवा इसने सबके सपने कुचले हैं। और ये सड़ांध सिर्फ मर्दों की पावर ड्रंक जमात को ही नहीं, अबला और अबाध समझी जानेवाली महिलाओं तक को सही-गलत के तर्क से परे करती जा रही है। जाहिर हैं महिला फिल्मकार होने के नाते फिल्म की स्टोरी टेलिंग को एक ख़ास ट्रीटमेंट मिला है। मर्दों के चश्मे से देखने वाले हम भोले-भाले दर्शक लोग किसी महिला के नज़रिए से कहानी को कैसे देख सकते हैं!? क्या अलंकृता इस बात से वाकिफ़ नहीं थीं की हमलोग 'शिलाजीत'और 'सियाचीन' के नाम से जोश में आ जाते हैं लेकिन महिला की माहवारी उसकी शारीरिक संतुष्टि और उसकी यौनिकता हमारे समाज में वर्जित विषय है। हज़ारों साल पुराने हमारी सभ्यता के ताले इतनी आसानी से नहीं खुलेंगे या शायद इन्हीं जैसी चाभियों के कॉम्बिनेशन से खुलें। आप ही माई बाप हैं, देख कर खुद ही तय कर लीजिए।