मां, मेरी मुझे बहुत चाहती है, रह -रहकर उसे मेरी याद आती है
बात होती है, तो बताती है, मेरी आलमारी रोज़ सजाती है
गुफ्तगू कर लेती है, बेजान आलमारी से, मेरे बिखरे सामान पर, गुस्से में मुस्कुराती है
कटर, रबर, कभी पेंसिल भूल जाया करता था, आज भी मेरी मां, मेरा बैग जमाती है
ज़िंदगी उसकी मेरे इर्द -गिर्द है, मेरे हंसने पर हंसती, मेरी उदासी पर उदास हो जाती है
उदासी जमाने से छुपा लेता हूं, मां के सामने मुस्कुराता हूं, तो भी जान जाती है
पूछता हूं मां, तुझे क्या चाहिए, घर जल्दी आया कर बस, यही चाहिए
उलझन जब कभी इतनी बढ़ जाती है, खुद की समझदारी काम न आती है
मां पूछ लेती है बस, फिर मां की दुआ मेरे साथ जाती है
टूटकर बिखरी है, कई बार ज़िंदगी मेरी, मेरी मां, आज भी मुझे चलना सिखाती है
बीमारियों ने घेर लिया था, अरसे पहले, लौट आया था घर, क्योंकि मां ही है, जो अमृत सा खाना बनाती है
फिसलकर गिर गई थी, आंगन में वो, कहती थी चोट थोड़ी ही आई है, आज भी उठ-उठकर मुझे चादर उड़ाती है
नाराज हो गया था दोस्तों के सामने, नाम से बुलाया करो, मेरी मां आज भी अकेले में लल्ला बुलाती है
न समझ था, अफसोस आज होता है, मां की डांट में आशीर्वाद होता है
बात करूं उस उम्र की, न समझी की, तो आज भी डांट लगाती है
रूठ जाऊं लाख, जमाने को फर्क नहीं पड़ता, मां है की मेरी गलती पर भी मुझे मनाती है
मां, मेरी मुझे बहुत चाहती है
स्वरचित
मनीष त्रिवेदी
कानपुर, उत्तर प्रदेश