" मासूम ग़ज़ल "
(01)
दो पल को आये वो सदियाँ ले गये
घटा दी सावन की, दरिया ले गये
मुहब्बत का कैसा सौदा कर गये
देकर दर्दे-दिल, खुशियाँ ले गये
यादों के आँगन में कैसे मिले सुकूं
उड़ाकर हमें धूप तुम छइयाँ ले गये
कौन ले जाये ये संदेश अब हमारा
जाते हुये परदेश पूरवइया ले गये
बसाई थी दिल में छोटी सी दुनियाँ
दिल क्या ले गये दुनियाँ ले गये
(02)
किसकी बलाऐं लूँ एै बला, तू बता
किसको बलाऐं दूँ मैं भला तू बता
मस्ती मे अपनी सारे ही चूर है
किसको सलाहें दूँ एै सदा तू बता
सुनता ही नही आदमी किसी की
किसको सदायें दूँ एै हवा तू बता
ओढ़ के क़फ़न ही पैदा हुऐ सब
किसको क़बाऐं दूँ एै क़ज़ा तू बता
बंदग़ी तेरी अब कौन करता है
किसको दुआऐं दूँ एै ख़ुदा तू बत
(03)
ये ज़िन्दग़ी हादसों का महल है
हादसा इक यहाँ होता हर पल है
क़ज़ा है दरबान दर पे इसके
कि सीढ़ीयाँ भी जैसे दल-दल है
रंजो-ग़म से है बनी दीवारें इसकी
गुलशन भी इसका ख़ूनी जंगल है
ख़्वाब टूटते है इसी सेज पर
यहाँ सुर्ख़ लहू का मखमल है
आरज़ू कई तो जी भी नही पाती
अरमानों का यहीं होता क़तल है
हुनर नहीं कोई जज़्बात भी नहीं
यारों ये ग़ज़ल हादसों की ग़ज़ल है