कविता
मेरा गाँव
भारत के नक्से में मेरा यह गाँव,
जैसे लंका की छाती पर अंगद का पाँव.
बस रूढियों और परंपराओं से,
चिपका है,हिलता नहीं.
हीले भी क्यों
जब कुछ मिलता नहीं.
यहाँ के इंशानों के लिए,
नये उद्योग,नई योजनाएँ,
सब बेकार हैं.
क्योंकि इन्हें
पुरानी चीज़ों से बहुत प्यार है.
स्कूल है,पर बच्चे नहीं हैं.
बच्चे हैं,पर अच्छे नहीं हैं.
अध्यापक हैं,पर आते नहीं हैं.
आते हैं तो,पढ़ाते नहीं हैं.
वैसे गिनती से पहाड़े तक,
पायजामे के नाडे तक,
सब कुछ अध्यापक बताते हैं.
फिर भी क्या बच्चे पढ़ पाते हैं.
ज़मीन तो है,पर बंजर है.
भारत-माता की छाती पर,
चुभता खंजर है.
इसकी सूनी माँग कौन भरे.
मेहनत ज़्यादा है,कौन करे.
बस मानसून का सहारा है,
जो आता नहीं है.
आता भी है तो बरसाता नहीं है,
इसलिए कभी अकाल तो कभी सूखा है.
गाँव अंदर से खोखला है,भूखा है.
द्वार पर आया भिखारी इनसे,
कुछ भी माँगने से कतराता है.
क्योंकि उसे मालूम है,
यहाँ का हर घर जितना कमाता है,
उससे अधिक ख़ाता है.
रोज़गार है,पर कोई करता नहीं.
करे भी क्यों,जब सवरता नहीं.
भरी भीड़ में सन्नाटे से डरना,
फ़ायदे के बीच दिखते घाटे से डरना,
इनकी आदत में शुमार है.
क्यों की बेवक्त की नीड से,
इन्हें बहुत प्यार है.
बचती है नौकरी जिसके लिए,
ईश्वर ने इन्हें गढ़ा नहीं है.
क्योंकि प्रभू की कृपा से,
उस लायक कोई पढ़ा नहीं है.
सीधे हैं,पर सरल नहीं हैं.
भाषा रशीली है,गरल नहीं है.
विष घोलना बिल्कुल नहीं आता.
इन्हें सब के सामने बोलना,
बिल्कुल नहीं आता.
सांप्रदायिकता क्या है,कोई जानता ही नहीं.
वैसे भी बिजली के अभाव में,
कोई एक दूसरे को पहचानता ही नहीं.
गाँव का पुराना कुआँ.
जिसका कोई शानी नहीं है.
क्योंकि उसमें बूँद भर पानी नहीं है.
सब जल की अभिलाषा में जीते हैं.
मौका मिलते ही छक कर पीते हैं.
भगत हैं,शुभाष हैं,झाँसी की रानी हैं.
कृष्ण हैं,सुदामा हैं,मीरा दीवानी हैं.
बस शहादत का न होना,
इस गाँव के लिए अभिशाप है.
वैसे भी हमारे क़ानून में,
आत्महत्या पाप है.
दहेज यहाँ की परंपरा है शान है,
क्योंकि बाप दादाओं की चार एकड़ ज़मीन,
पुस्तैनी मकान है.
दो बैल,चार भैसें हैं,
कुछ नहीं तो बहू उन्हें ही ढीलेगी.
खेत सूखा ही सही मेड पर,
अपना चारा है ,उसे ही छीलेगी.
इकलौता वारिश समझो किस्मत का खेल है.
बस एक ही कमीं है,
वह दशमी फेल है.
हर ब्यक्ति इन्हीं सोचों के दलदल में,
धंशा है,खचा है.
शायद फिर भी उम्मीद का
थोड़ा सा दामन कहीं बचा है.
जिसकी ओर वह ताकता है.
भविष्य के बंद दरवाजे की ओर झाँकता है.
कि शायद कोई आए,
उसे प्रगति का रास्ता दिखाए.
पर ऐसा शायद आसान नहीं.
इसका उसे गुमान नहीं.
आज के युग में आगे बढ़ना है,
तो अपनी मेहनत से,
अपनी तकदीर खुद गड्ढो.
कदम से कदम मिलाकर,
वक्त के साथ आयेज बढ़ो.
वरना वैसे भी आज-कल,
दूसरों के मामले में बोलता कौन है.
बचेंगे तुम्हारे इतिहास के पन्ने,
जिन्हें खोलता कौन है.
जय सिंह"गगन"