विजय गौड़
हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्पष्ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्पष्टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्थायी दुश्मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्य की शक्ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्तार दें और जीवन जगत में व्याप्त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्वंय व्यवहार से ही उपजी असहमतियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्पष्ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही हत्यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्य आवाज और ‘सांस्कृतिक’ हत्यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्कृतिक हत्यारापन क्या है ? विश्वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्या-क्या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्त तो असहमति की असभ्य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्कृतिक हत्यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्कृतिक हत्यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।
चलिये छोडि़ये क्या-क्या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्यारापन उतना सांस्कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।