कहते है वक्त कैसे गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता ...हॉ शायद यह बात सही भी है।
अपनी उम्र के २२वें पडाव में जब में कदम रख रही थी तब मुझे न जाने यूहीं मन किया कि नानीजी से मिल आऊ । मुझे देख शायद इस पूरी में दुनिया कोइ इतना खुश ना होता होगा जितन वो हुई। मुझे आज भी याद है कि किस तरह अपनी पुरी ३ महिने की गर्मी की छुट्टियाँ में रतलाम में बिता दिया करती थी और आज में सिर्फ़ एक दिन के लिये मिलने आयी हुँ । तब भी नानीजी क्लिनिक से आने के बाद खाना बनाने में जुट जाती थी और आज भी वो मेरे लिये स्पेशल बनाने में मशगुल हो गई है ।मेरे लिए आज भी वो वहीं सुन्दर सी लम्बी सी चोटी लिए एक हाथ में कंगन पहने हुए ...एक ढीला सा गाऊन पहने सब्ज़ी काट रहीं है पर आज वो मुझे कोई कहानी नहीं सुना रहीं है(यह एहसास दिलाता है कि में अब बच्ची नहीं रहीं), आज वो मुझसे बोल रहीं है कि जैसे उनकी माँ उनसे कह्ती थी कि लाली हाथ बुढियाँ से गए है तब उन्हें हँसी सी आ जाती थी पर आज मेरी नानी को भी यहीं लग रहा था कि उनके हाथ भी कुछ बुढे से दिख रहें ,धीरे-धीरे काम करने कि क्षमता कम हो रही है पर जीजिविषा उतनी ही है,वो अब थोडी थकने भी लगी है पर वो थकना चाह्ती नहीं, रात को देर से सोने कि वजह से सुबह उनकी आजकल आँख नहीं खुलती है पर फिर भी सुबह ६ बजते ही वो मॉर्निग वॉक पर निकल चुकिं होती है, बाल सफ़ेद हो गये है तो अब हर दूसरे इतवार मेहंदी लगानी रहती है,ज्यादा गहरे रंग के कपडॆ पहनने के पहले पूछ्ती है मेरी उम्र के हिसाब से ठीक तो है ना।
उनकी बातों का क्या जवाब दूँ मुझे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था,में बस सुनती जा रहीं थी। मन ही मन में उनकी उम्र और बढता वक्त रोक लेना चाह्ती थी ....पर वक्त हाथों से रेत कि तरह फ़िसलत हुआ सा प्रतीत हो रहा था।अब में यहाँ से जाना नहीं चाहती थी,पर जाना मेरी नीयती में था। पर जो लम्हें हमने बिताए वो यही पर कहीं रह गये है ...कुछ उनकी आँखो में कुछ मेरी आँखो में। उस दिन मैने खुदसे वादा किया कि में फिर आऊँगी और अगली बार उन्हें अपने साथ ले चलूँगी।बस इतनी सी थी यह मुलाकात जो ज़िन्दगी के असली मायने सिखा गई कि जीवन वाकई चार दिनों का होता है पैसों के पिछे भागने कि बजाय रिश्तों की तरफ़ दौढ लगाए क्योंकि यहीं प्रेम कि डोर हमें मुकाम तक पहुँचाएगी।