आज मौसम में कुछ खामोशी थी। हवा धीरे धीरे चल रही थी ।मौसम थोड़ा सर्द था।
मैंने देखा ...तीखी चुभीली हवाओं के एहसास के साथ एक बूढ़ी औरत पथराई सी आंखों से एकटक शून्य को ताकती हुई ,जर्जर काया पर एक झीनी सी साड़ी और उसपर मैली सी शाल लपेटे हुए ...घर के आंगन में एक बुनी हुई ढीली सी चारपाई के गड्ढे में धूप सीख रही है ।उस बूढ़ी औरत को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अपने यौवन काल में बहुत ही खूबसूरत रही होगी ।
सफेद जर्जर काया, तीखे नयन नक्श, सफेद चमकीले लंबे बाल... कहते हैं ना कि खंडहरों को देखकर पता लग जाता है कि यह इमारत कितनी वैभवशाली रही होगी।
मुझे रहा नहीं गया... मैं धीरे से उनके पास गयी और उनसे पूछने की कोशिश की । पहले तो प्रणाम किया उन्होंने इतने प्यार और उत्साह से मुझे आशीर्वाद दिया। मुझे लगा ही नहीं कि मैं अपरिचित हूं।
मैंने पूछा - दादी कैसी हो ?
दादी बोली- राम जी की कृपा से अच्छी हूं.. बेटा
मैंने बोला- इतनी सर्दी में क्यों बैठी हो ?
दादी बोली- अरे ..बेटा ..लाला की बाट जोह रही हूं । आजावै तौ अंदर कोठरी में चली जाऊं ।
मैंने बोली- आ जाएगा तो आपसे में जाकर मिल लेगा।
दादी बोली- ना बेटा... एक बार देख लूं.. लाला को तो चैन से सोऊंगी। बाकूं.. बहू और बच्चन ते टाइम ना मिलै थक जावै बेटा वो...
मैंने बोला - दादी आपके बेटे हैं वो ??
दादी बोली - ना बेटा नाती है ...बेटा तो निर्दयी मोये बिलखती छोड़ कर चलो गयौ । (उनकी आंखें भर आईं)
मैंने बोला- दादी माफ करना ।
दादी बोली - अरे बेटा ...वो कहबैं ना ..मूल ते ज्यादा ब्याज प्यारी होवे। अब मेरो कहा... भगवान कब बुलावौ भेज दे ....जे भगवान निर्दयी बुलावे भी तौ नाय .... मेरे गोपाल लाला कूं बुला लियो।
मैंने बोला- अरे दादी ऐसा क्यों बोल रही हो ।
दादी बोली - बस मेरी नतबहू की गोद भर जाए तो मैं स्वर्ग नसैनी चढ़ जाऊं । और चैन ते मर जाऊं।
अब तो दादी रुकने का नाम ही नहीं ले रही ...उनका दर्द धीरे- धीरे फूटने लगा ....कह रही थी ...अरे बेटा मैं बूढ़ी हूं ...दिखाई भी तो ना देवे ...गंदगी भी कर दूं ...जा मारे बहू ने मोये जे कोठरी दै दई है। खुद ही बड़बड़ाने लगी .... पढ़ी-लिखी बाकी बहू आ गई हैं। पसंद ना करें । बच्चन की बोली बिगड़ जाएगी जा मारें बच्चन कूं भी दूर रखें ।
और ना जाने क्या क्या कहने लग रही थीं। मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मैं सोच में डूब चुकी थी। बस मैं तो उनके विशाल घर को देख रही थी जो कि बहुत सुंदर था ।सबकुछ है इनके पास फिर भी कैसी विडंबना है।ऐसे नहीं जीना मैं सबकी परवाह के साथ अपनी अपने बारे में भी सोचूंगी ।आज अगर यह दादी अपना सब कुछ अपने बच्चों में ना देती तो क्या इनकी कदर नहीं होती। ऐसे विचार मेरे मन में आ रहे थे। क्यों ऐसी मृगतृष्णा कि मैं अंत में अकेली रह जाऊं। उनकी बातें सुनकर मेरी भी आंखें नम हो गई थीं। और भारी मन से मैं वहां से चली आई।
नमस्कार ....
यह कोई कहानी नहीं मेरे साथ घटित वाकया है। जिसे मैंने अपने शब्दों में पिरोकर आपके समक्ष प्रेषित करने कोशिश की है । मुझे बहुत दुख हुआ । मुझे नहीं पता क्या कहानी थी उनकी ... पर मैं निशब्द थी... क्या बोलती... वह चेहरा ....मुझे आज तक नहीं भूलता है। शायद ऐसी कहानी हमारे समाज के बहुत से बुजुर्गों की हो सकती है।
मेरा सभी से विनम्र निवेदन है कि अपने बुजुर्गो की परवाह करें । उनकी देखभाल करें।अगर मैंने अज्ञानतावश किसी की भावनाओं को आहत किया हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
धन्यवाद,
यह स्वरचित और अप्रकाशित है।