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पांच बादाम और...

22 नवम्बर 2021

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 पांच बादाम और... 

आज तीसरे दिन फिर से बादाम की कटोरी में पांच बादाम कम थे. पिछ्ले दो दिनों से मुझे अपनी गिनती पर न चाहते हुए भी जो संशय करना पड़ रहा था, वो आज किसी दूसरी ओर ही इशारा कर रहा था। एक मध्यम वर्गीय परिवार में प्रत्येक वस्तु का जितना स्वयं का महत्व होता है उससे कहीं अधिक मोल उसकी नाप तौल
का भी है। पांच सदस्यों के अपने परिवार में प्रत्येक सदस्य के लिये पांच बादाम के हिसाब से मैं प्रतिदिन पच्चीस बादाम भिगोया करता था। एक साथ देखने पर इतने बादाम भले ही किसी नवाब के दूध में पिस कर डलने के लिये पूरी मुटठीभर दिखाई पड़ें परंतु, मुझसे अधिक उनकी गिनती, परख और माप-तौल भला कौन कर सकता था? मैं तो जैसे, एक-एक बादाम से व्यक्तिगत रूप से परिचित था. यह कोई गेहूँ या चावल के दाने नहीं थे जो दान देते समय कुछ कम बढ़ती भी हो जायें तो कोई चिंता की बात नहीं थी. लगातार तीन दिनों से
प्रत्येक सदस्य के हिस्से का एक एक बादाम कम होना अपने आप में जहाँ चिंता का विषय था वहीं, मेरी कार्यशैली और परिवार के स्वास्थय और घर की वस्तुओं की सुरक्षा के प्रति मेरी जागरूकता पर भी किसी प्रश्नचिन्ह से कम न था. यह स्थिति किसी भी तरह से ऐसे ही स्वीकार्य न थी और मैं भी अपने स्तर पर इसकी गहन जांच पड़ताल में लगा हुआ था. न चाहते हुए भी घर के सभी सदस्य शक के दायरे में थे, मैं सोच रहा था कि कौन इतना स्वार्थी हो सकता है जो दूसरे का हिस्सा दबाने की शुरुआत इस निम्न स्तर पर कर रहा है. दो छोटी  पुत्रियों, पत्नि और मां में से मुझे कोई भी ऐसा न दिखाई दिया. जब पालतू बिल्ली के बारे
में सोचा तो लगा कि यह तो प्राकृतिक रूप से ही बहुत चालाक है, इसे बादाम खाकर दिमाग बढ़ाने की क्या आवश्यकता होगी? और फिर जानवर भूख लगने पर भले ही छीन – झपट और चोरी कर ले परंतु जमाखोरी, जोड़-घटा, नफा-नुकसान और गिनती के झंझटों से तो कदाचित अभी कलयुग में भी दूर ही है.  

 अब कौन बचा? रसोई में आवागमन करने वाले कुछ अन्य सदस्य जैसे चूहा, बिल्ली, छिपकली, कॉक्रोच और चींटी. यह सब भी बादाम नहीं खा सकते और यदि खाते भी हों तो ऐसे गिन गिन कर तो कतई नहीं. बादामों का प्रतिदिन यूं कम होना आश्चर्य तो अवश्य था परंतु ऐसा कोई रहस्य भी नहीं था. पोछे की बाल्टी के पानी में
तैरते बादाम के छिलके सच्चाई बताने के लिये तो आतुर थे परंतु निर्जीव और बेजुबान वस्तुओं की गवाही में कानूनी प्रक्रिया के लिये आवश्यक जिरह करने का दम कहां था? मेरे मन के इस अंदेशे को विश्वास में बदलने में कोई अड़चन या रुकावट तो न थी परंतु, अनायास ही मेरा मन अंतिम निर्णॅय पर मुहर लगाने में कदाचित
कुछ संकुचित होकर थोड़ा और समय लेना चाहता था. बादाम के चोर को रंगे हाथों पकड़ा नहीं जा सकता था इस कारण अभियोग चलाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था, प्रमाणों और चश्मदीद गवाहों के अभाव में सच्चाई का पता होते हुए भी किसी पर यूं ही आरोप सिद्ध भी नहीं किया जा सकता था. चोर के भय से बादाम न भिगोये जाएं, ऐसा भी उचित न था और सुल्तान जहॉंगीर की अदालत की तरह बस न्याय का पक्ष लेकर चोर को देश निकाला देना भी व्यवहारिक सा प्रतीत नहीं हो रहा था.  

बादाम के चोर की समाज में एक अच्छी और ईमानदार छवि थी और कई मौकों पर उसकी ईमानदारी को मैं स्वयं भी परख चुका था. अक्सर इधर उधर पड़ी रेज़गारी और अपने बटुए के प्रति लापरवाह रवैये के चलते अभी तक कुछ अनहोनी नहीं घटी थी, इतना किसी पर विश्वास करने के लिये पर्याप्त था. कोई भी इंसान हमारा विश्वासपात्र हो सकता है, उसके विश्वास की प्रगाढ़ता चरम तक हो सकती है परंतु, कब तक? विश्वास की समय सीमा कोई तय नहीं कर सकता.  नीयत में आया एक ज़रा सा खोट किसी पर्दे पर हुए उस छोटे से सुराख की तरह होता है जो समय के साथ कब एक बड़ी दरार का रूप लेकर पर्दे को तार-तार कर जाए, पता ही नहीं लगता. मानव स्वभाव की भी यह एक बड़ी विशेषता होती है की पर्दे के उस छोटे से सुराख पर समय रहते पैबंद लगाने के बजाय हर समय हवा और रौशनी के आर पार होने का बहाना बनाकर उसे सहेजता रहता है.  

उन पांच बादामों से न तो मैं गरीब हो जाता और न ही वो अमीर लेकिन, चोरी तो उसने की ही थी चाहे वो पांच बादाम की हो या फिर किसी बड़ी दौलत की. खाने पीने की वस्तुओं पर नियत डोल जाना एक आम बात है, कई बदे-बदे लोगों को भी इस समस्या से लिप्त देखा जाता है. और फिर अभाव के चलते तो ऐसा कामों का कभी मज़बूरी तो कभी ज़रूरत बन जाना एक सामान्य सी ही बात है. बादाम की तो बात ही निराली है, मानसिक और शारीरिक रूप से यह पांच बादाम और एक कप दूध चाहे कोई शक्ति देते हों या नहीं परंतु इनका मनोवैज्ञानिक संबल बहुत अधिक और असरकारक होता है. जो गलत शुरुआत उसने कर दी थी, वो अब किसी भी हद तक जा सकती थी. उन पांच बादामों के साथ उसने विश्वास की जिस दहलीज़ को आज पार कर
लिया था उसमें शायद नए नए मौके तलाश कर कहीं तक का भी सफर तय किया जा सकता था.  

यही गलती यदि मेरे किसी अपने से हुई होती तो मेरे पास अनुशासन, डांट-डपट और प्यार के ढेरों तरीके होते उसे समझाने, सुधारने और मनाने के लेकिन एक अलग ही मानसिकता, व्यवहार और अपेक्षाओं वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हुई उस “काम वाली बाई” को कुछ कह पाने में मैं स्वयं को असमर्थ सा महसूस कर रहा था. मेरा कुछ कहना उसके मन में अपनी गलती को नज़रअंदाज़ करते हुए एक विद्रोह का रूप ले सकता था. उसके प्रति इतना औपचारिक, संवेदनशील और उदार रवैया रखने के पीछे कोई और तर्क न होकर केवल इतनी सी बात थी कि इन लोगों के बिना आजकल हमारा काम भी नहीं चल सकता और यह पूरा वर्ग कहीं न
कहीं एक सा ही होता है. इनमें अंतर करना बुरे और गंदे में भेद करने जैसा ही होता है. आपके घर का सामान इधर उधर नहीं हो रहा है, आपके घर की बातें पड़ोस में नमक मिर्च के साथ नहीं बताई जा रही हों तो आप यह
मान कर संतुष्टी कर लीजिये कि आपकी “काम वाली बाई” में ईमानदारी, सभ्य्ता और संस्कारों की उतनी ही भरमार है जितनी शायद आपको अपनी पुत्रवधु में अपेक्षित हों.   

 मैं संतुष्ट ही था कि उसके प्रति अपनी अदृष्य चौकसी बढ़ाने का जो संदेश पांच बादामों के रूप में मिला था वो न तो ज़्यादा नुकसानदायक ही था और न हि बहुत महंगा. उसके लालच को समाप्त या कम तो नहीं किया जा सकता था परंतु उसको बादाम की कटोरी तक ही सीमित अवश्य रखा जा सकता था. स्तिथी को सम्भालने और उसे अधिक विकृत होने से बचाने के लिये मेरे दिमाग में इससे बेहतर कोई युक्ति नहीं सूझ रही
थी. 

मैंने चुपचाप उस दिन के बाद कटोरी में पांच बादाम और डालने आरम्भ कर दिए। 

  सुधीर सनवाल 


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