गहरा जवाब
बात आज से लगभग पंद्रह वर्ष पुरानी है. पच्चीस की आयु में अपने स्वयं के भविष्य से अनजान, मैं इस देश के भविष्य निर्माण के व्यवसाय में एक बहुत छोटे, अल्प अनुभवी, अति उत्साही और श्रेष्ठ दिवा स्वप्न
द्र्ष्टा के रूप में कार्यरत था. स्वामी विवेकानंद सरीखे ज्ञान, सर्वपल्ली राधाक्रिष्णन जैसे संस्कारों और गुरू द्रोणाचार्य जैसी छवि के मिथ्या दंभ से लबरेज़, मैं बच्चों को शिक्षित करने में पूर्णरूपेण लिप्त था.
मैं एक ऐसे स्कूल में अध्यापनरत था जिसमें दिन का शिक्षण और छात्रावास दोनों की ही सुविधाएं थी. सुबह के समय तो कुछ बच्चे घर से और कुछ छात्रावास से आकर जब एक साथ प्रार्थना सभा में एकत्र होते तो बहुत ही खिलखिलाते से मिलते थे परंतु छुट्टी के समय छात्रावास की ओर जाते बच्चों की ऑखों में अपने घर की यादों की एक कसक साफ दिखाई देती थी. छात्रावास में अच्छे खाने पीने और अन्य मूलभूत सुविधाओं के अलावा साथी संगियों के साथ रहने और मौज मस्ती करने में बच्चों को कोई परेशानियां नहीं थी. परंतु, कुछ बच्चों के लिये ऐसे आनंद की अभयस्तता ह्र्द्य से स्वीकार्य न होकर केवल परिस्थतिवश थी.
बस यूं ही एक दिन मैं छात्रावास तक जा पहुंचा. मेरे विषय के भी कुछ बच्चे वहाँ रहते थे, मैंने सोचा कि परीक्षा के लिये उनकी कुछ विषेश तैयारी करवा दूंगा. शाम का समय था, बच्चे अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे. कुछ मनोरंजन कक्ष में टी वी देख रहे थे, कुछ खेल रहे थे तो कुछ एक दूसरे से हंसी मज़ाक और बातें कर रहे थे. एक बच्चा ज़ोर ज़ोर से कोई भाषण याद कर रहा था, शायद किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिये. मैंने उसका मनोबल बढाते हुए कहा, “अरे वाह! तुम तो बहुत अच्छा भाषण देते हो, तुम ज़रूर कोई वकील या नेता बनोगे.” बच्चा बोला, “जी हाँ सर, मैं वकील ही बनना चाहता हूँ.”
बातचीत को आगे बढाते हुए मैं वहाँ खडे और बच्चों से भी उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछ्ने लगा. छोटी उम्र और भविष्य के बारे में अभी कोई निर्णय न लेकर भी वो तरह तरह के नाम बताने लगे. कोई इंजीनियर, तो कोई डॉक्टर, कोई पाईलट, कोई सेना का अधिकारी और कोई व्यापारी. प्रत्येक बच्चे की कोशिश थी कि अपने माता पिता के सपनों और स्वयं की सोच के अनुरूप भारी से भारी नाम लिया जाए. तभी मेरी नज़र एक छोटे से बच्चे पर गई, जो एक कोने में अपने दोनों हाथ ऊपर किए खडा था और भावशून्य सा एकट्क यह सारा नज़ारा देख रहा था. कारण जानने पर पता चला कि वह इस छात्रावास का सबसे शरारती बालक है और आज ही उसने अपनी चप्पल उछालकर दो बल्ब तोड दिये थे जिसके कारण वार्ड्न ने उसे यह सजा दी थी. वह कक्षा दो में पढ्ता था और पिछ्ले वर्ष ही यहाँ आया था. मैंने उसे अपने पास बुलाया और प्यार से उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?” “रोहन”, उसने धीरे से कहा. मैं जैसे ही उसे देखकर मुस्कुराया तो वो मेरी कुर्सी के हत्थे के सहारे आगे सरक कर मेरे और निकट आकर मेरे घुटनों पर हाथ रखते हुए मेरे साथ सटकर ऐसे खडा हो गया जैसे शायद अपने पिता के पास खडा होता हो. इस प्रेमपूर्ण मुद्रा में उसे देखकर कोई नहीं कह सकता था कि अब वो चप्पल उछालने जैसी कोई और हरकत भी कर सकता है. मैंने उससे कहा, “भई बहुत शैतानियां करते हो तुम रोहन. चलो यह बताओ कि बडे होकर तुम क्या बनना चाहते हो?”
उसने मेरी ओर आपनी चंचल आंखों से देखा जिनमें आशा और आंसू दोनों की ही चमक थी. उसकी आंखें मुझसे पूछना चाह रही थीं कि जो मैं चाहता हूँ क्या तुम मुझे बना दोगे? वो बोल नहीं पाया क्योंकि उसका गला रूंधा हुआ था. वो धीरे से मेरे कान में फुसफुसाया. “मैं डे-स्कॉलर बनना चाहता हूँ.” मैं स्तब्ध रह गया, उसका उत्तर छोटा किंतु बेहद गहरा था. उस छोटे से बच्चे के भीतर भावनाओं का कितना विशाल और आशांत सागर था जो संभवतः ऑसुओं की उन छोटी छोटी बूंदों से बना होगा जो घर से दूर रहने की कसक और प्रेम की कमी के चलते विद्रोह से उपजी उसकी शैतानियों के बांध से रुककर अंदर ही जमा होती रही होंगी.
मेरे मन में आज जितने भी नकारात्मक विचार थे, जो भी असंतोषपूर्ण भावनाएं थी, ज़िन्दगी से जो भी शिकायतें थी और कभी न खत्म होने वाली जो परेशानियां थीं, वह सब उसके एक ‘छोटे से जवाब’ के आगे कहीं नहीं टिकती थी. उसे देखते हुए मैं सोच रहा था कि जब यह छोटा सा बच्चा अपने ऊपर इतना बोझ लिए हुए
है तो फिर मैं किस हैसियत से अपनी रोज़मर्रा की चलती रहने वाली बातों को जीवन की समस्याओं का नाम दे दूं?
मैंने उस स्कूल में लगभग तीन वर्ष तक कार्य किया और रोहन से अक्सर मेरी मुलाकात हो जाया करती थी. जब मैं वहाँ से जाने लगा तो एक बार फिर रोहन से मिलने गया. अब वह पांचवीं कक्षा में था, मैंने कहा, “रोहन, अब बताओ तुम क्या बनना चाहोगे?” वो शायद समझ गया था, हँसते हुए बोला, “सर, मेरे पिताजी का तबादला अब शहर में हो गया है. छ्ठी कक्षा से वो मुझे अपने साथ ही ले जाएंगे.”
मैं शायद आज उससे भी अधिक प्रसन्न था. उसके सिर पर हाथ फेरते हुए मैं बोला, “अब तुम पढ लिखकर जो भी बनो परंतु, तुम्हारी बचपन की वो डे-स्कॉलर बनने की छोटी सी इच्छा तो अब पूरी होने ही वाली है. अब चप्पलें उछालने के बजाय तुम स्वयं ही खुशी से उछल सकते हो.”
सुधीर सनवाल