अनवरत साहित्य साधना के विशाल वृक्ष 'ज्योति खरे जी' का काव्य संग्रह 'होना तो कुछ चाहिये' जैसे ही हाथों में आया मन बच्चों सा कुचालें मार प्रसन्न हो उठा। काम की अधिकता ने 2-3 दिन ले लिये पर सच कहूँ तो तसल्ली से ही पढ़ना भी चाहती थी।
किताब का पहला पन्ना परिचय के रूप में 'शरद कोकस जी' के शब्दों से सजा मिला । अनुक़्रमणिका से आगे बढ़ते ही 'रश्मिप्रभा जी' की व्यंजनात्मक सार समीक्षा चमत्कृत करती है। कम शब्दों का लावण्य किसे कहते हैं यह उस डेढ़ पन्ने को पढ़ कर समझा।
यहाँ से आरंभ हुयी पन्ना दर पन्ना कविताओं में बँधी ज्योति दादा के अनुभव की रसधार। आस पास से जुड़े लगभग हर विषय को अपनी कविताओं में समाहित किया है । ऐसा लगता है कि कुछ आपबीती हैं तो कुछ के करीब से गुज़रे हैं कवि । पल-पल को महसूसती.... क्षण-क्षण को जीती कवितायें । हर कविता अपने भीतर एक कथा को संजोये है।
कहीं व्यवस्था और उसके कारिंदों पर चोट करती आपकी कलम की धार थोड़े शब्दों में ही बहुत कुछ समझा जाती हैं....
डाक बँगले में फिटती रही
"रात भर रमी......
.......सरकारी अस्पताल में
मरने के लिये
मछली सी फड़फड़ाती रही
पुसुआ की छोकरी "
व्यवस्था की चिंता है तो प्राकृतिक संधाधनों के अनुचित दोहन का खेद भी और बहुत कुछ कर गुज़रने की चाह भी...
धरती की दुनियाँ में
मनुष्य की चीख में शामिल होगा
इक सवाल...
आसमान तुम चुप क्यों हो?
शब्दों का विशाल भण्डार अपने पास केवल रखा ही नहीं बल्कि सबको परोस दिया है कविताओं में सजा कर। विशाल मन सारा अनुभव बाँट देना चाहता है। सहज सुंदर भाव जोड़ लेते हैं पाठक को कि कहीं उसी की कोई बात कही जा रही हो।
बहुत ही संवेदनशीलता से नारी की कथा...तो कहीं अम्मा की व्यथा का भास कराती हैं कवितायें...
"टाँग देती हैं
खूँटी पर सपने
सहेजकर रखती है आले में
बिखरे रिश्ते ...."
बहुत सारी कवितायें प्रकृति से रची बसी और गढ़ी गयी हैं चाहे वह बसंती बयार लिये'आने की आहट' हो या 'ओ मेरी सुबह', 'नदी', 'बूँद' या फिर 'चिड़िया रानी' हो और भी कई पर मुझे सबसे अधिक भी गयी 'गुलमोहर'...
"तुम गुलमोहर हो सकते हो...
किसी आतप से झुलसे जीवन के लिये
छाँव दे सकते हो,
किसी जलते मन को..."
संवेदनाओं की गहराई में उतरती जाती हैं कवितायें । देखा कैसे 'दर्द' की भी रूपरेखा हो सकती है ....
"कतई लापरवाह नहीं
याद रखता है अपना शिविर, घर
तासीर और समझदार है
इसके इशारे से धड़कता है दिल..."
समय के बड़े से कागज पर... ढेरों एहसास और तमाम रिश्तों को, समय की पकी स्याही से लिख डाला है । 'पापा अब' पढ़ते समय लगाव सा हो गया कविता से ... हाँ मैं भी तो ऐसा ही कुछ लिखना चाहती थी। 'भीतर ही भीतर' कितना कुछ छुपा होता है, हर कविता यही कहानी कहती लगती है ।
बानगी मात्र हैं मेरे इन शब्दों द्वारा कवि की अभिव्यक्ति ।
अमृतपान के लिये उस विशाल समुद्र में होता लगाना होगा जिसमें छुपी हैं ढेरों रत्नरूपी कवितायें।
प्रेम की सुगंध , रिश्तों की गंध, मिट्टी का रंग, प्रकृति का संग, नदी की कल कल, व्यवस्था की हलचल, सपनों के बीज, अपनों के बीच, हादसों के घाव, साँस रखी दाँव .... की सुगबुगाहट.... 'होना तो कुछ चाहिये'।
काव्य संग्रह -' होना तो कुछ चाहिये'
कवि- ज्योति खरे
प्रकाशक- ब्लू बक- नई दिल्ली
मूल्य- 235/- (www.bookdhara.com)