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शिक्षा: प्रभाव, तनाव, दबाव

25 जून 2016

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आये दिन छात्रों द्वारा अवसाद ग्रस्त हो आत्महत्या किये जाने की घटनायें अखबार और टेलीविज़न की सुर्खिया बनी रहती हैं तो कभी अन्य अपराधिक कार्यकलाप में छात्र लिप्त पायेंगे जाते हैं। ऐसा होने के विभिन्न कारण हैं जिन पर ध्यानाकर्षण अतिआवश्यक है।
आज के प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में छात्रों पर यह दबाव रहता है कि वह अपने विषय क्षेत्र में अग्रणी रहें और माता -पिता और संस्थानों द्वारा आरोपित यह दबाव ही छात्रों में तनाव उत्पन्न करता है। शिक्षा हर व्यक्ति को प्रभावित करती है । यह प्रभाव कब तनाव का रूप ले लेता है पता ही नहीं चलता है।
शिक्षा हमें मूल अधिकार के रूप में प्राप्त हुयी है। पर यही मूल अधिकार दबाव के तनाव में आकर बच्चों की मौलिक प्रतिभा का हनन करता है। प्राथमिक स्तर से ही यह दबाव छात्रों पर आरोपित होता है। कक्षा में प्रथम आने से ले कर साँस्कृतिक और कलात्मक क्रिया कलापों में सक्रिय रहने का दबाव छात्रों से उनकी नैसर्गिक प्रतिभा छीन लेता है । 
माध्यमिक स्तर तक आते आते बहुत से छात्र कुंठा का शिकार- हो जाते हैं । माता -पिता की इच्छानुसार चयनित विषयों को पढ़ने के लिये बाध्य छात्र इसी के चलते भटकाव की ओर अग्रसर हो जाते हैं। कक्षा नौं से बारह तक छात्र किशोरवय होते हैं और भटकाव की सबसे अधिक संभावना भी इसी उम्र मे होती है । शारीरिक और मानसिक परिवर्तन उनके मस्तिष्क में ढेरों प्रश्न उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में पढ़ाई से एकाग्रता का विचलित होना स्वाभाविक है। अपने प्रश्नों की खोज उन्हें माध्यम ढूंढने को विवश करती है। ऐसे में उनकी समस्याओं और जिज्ञासाओं का हल सुझाने के स्थान पर अधिकतर संस्थानं और परिवार उन पर पढाई पर ध्यान देने को बाध्य करते हैं। ऐसे में छात्र स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं और बहुत से गलत कदम उठा लेते हैं। इंटरनेट से प्राप्त जानकारी को अनुभवहीन बालमन दवा के तौर पर लेता है लेकिन मार्गदर्शन के अभाव में यही घातक विष बन जाती हैं । अधकचरी जानकारी ज्वलंत विस्फोटक के समान इकठ्ठा होती रहती है और अधिक दबाव में एक दिन फट पड़ती है। 
अगर स्थितियों का विश्लेषण किया जाये तो हम पायेंगे कि माता -पिता की सक्रियता और शिक्षण सस्थानों की नैतिक ज़िम्मेदारी इन भयावह परिस्थितियों से भली भाँति निपट सकती हैं । प्राथमिक स्तर से ही छात्रों के नैसर्गिक गुणों को निखारने के लिये कार्यशालायें आयोजित की जानी चाहिये ।परिवार स्वयं उन गुणों को सराहें और भरपूर सम्मान दे। माध्यमिक स्तर का कार्य तो सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। विद्यालयों को अपने नैतिक दायित्वों का निर्वाहन करना अति आवश्यक है। अच्छे और सुंदर समाज की आधारशिला यहीं रखी जाती है।  शिक्षक ,छात्रों से मित्रवत व्यवहार करें जिससे कि छात्र भयभीत होने के स्थान पर अपनी पूरी क्षमता का सदुपयोग कर सकें। परिवार का दायित्व यहाँ बढ़ जाता है। माता -पिता भी बच्चों से मित्र की भाँति ही अपनत्व दिखाये जिससे बच्चे बिना झिझक अपनी जिज्ञासाओं और समस्याओं का सर्वोत्तम निदान पा सकें। समय समय पर विद्यालयों में गाइडेंस और काउंसलिंग सत्र आयोजित किये जाने चाहिये जिससे छात्र स्वयं भी अपनी क्षमता का आंकलन कर सकें और स्वयं की दिशा निर्धारित कर सकें । विद्यालयों मे योग और ध्यान की कक्षाओं को भी नियमित स्थान मिलना चाहिये ताकि छात्रों में तन्मयता और एकाग्रता के गुण विकसित हो। और इन सभी से ऊपर परिवार में उन्हें स्वस्थ वातावरण और भरपूर प्रेम मिले।

  शिप्रा खरे

शिप्रा खरे

मेरे लेख को 'आज का लेख ' चयनित कर मेरा हौसला बढाने के लिये हृदय से आभार शब्दनगरी संगठन

26 जून 2016

महेश सिंह

महेश सिंह

बहुत ही सार्थक बात कही आपने। शिक्षा का मुद्दा है भी इतना ही गंभीर। आखिर आज शिक्षा को भी व्यापार बनाया जा चुका है। बच्चों पर इतना प्रैशर है की आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसे बिगड़े माहौल का पता नही सुधार कब हो मगर जैसा कि आपने लिखा है - माता -पिता भी बच्चों से मित्र की भाँति ही अपनत्व दिखाये जिससे बच्चे बिना झिझक अपनी जिज्ञासाओं और समस्याओं का सर्वोत्तम निदान पा सकें। समय समय पर विद्यालयों में गाइडेंस और काउंसलिंग सत्र आयोजित किये जाने चाहिये - इससे मैं सहमत हूँ ।

26 जून 2016

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बहती ज़िन्दगी

9 जून 2016
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ज़िन्दगी मुश्किलों भरा रास्ता ..इम्तिहान मील के पत्थर ...यकीन हौसलों के साये ..सब्र हिम्मत के शज़र ...* ~ शिप्रा ~ 

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पुस्तक समीक्षा : होना तो कुछ चाहिये

15 जून 2016
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अनवरत साहित्य साधना के विशाल वृक्ष 'ज्योति खरे जी' का काव्य संग्रह 'होना तो कुछ चाहिये' जैसे ही हाथों में आया मन बच्चों सा कुचालें मार प्रसन्न हो उठा। काम की अधिकता ने 2-3 दिन ले लिये पर सच कहूँ तो तसल्ली से ही पढ़ना भी चाहती थी। किताब का पहला पन्ना परिचय के रूप में  'शरद कोकस जी' के शब्दों से सजा म

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