shabd-logo

वो समेट रही है।।।।।

20 मई 2018

96 बार देखा गया 96


वो समेट रही थी... कुछ गिने चुनें उन लम्हो को, पलों को या शायद यादों को पता नहीं... उस कमरे में कैद अपनी और अपनी हंसी को समेट रही थीं.. उन पन्नों को समेट रही थीं.. जिसमें उसकी कहानी अधूरी लिखी गयी थी या उस कलम को जो उसकी मजबूरियों को नही उतार पाया... लोगो° में बिखरी उस अफवाह को समेट रही थी जिसने उसे नए नाम "वैश्या" से परिचय करवाया.. वैश्या, बद्चलन, बेहया और ना जाने ऐसे कितने ही शब्दो° को खुद में समेट रही थी.. समेट रही थी अपनी उम्र को लिए शायद रोटी के लिये, या उस नन्ही को उस दलदल से बाहर निकलने के लिए,, उन वस्त्रो को जो उसके लाज थे, के साथ ही वो अपने बिखरे बालो को समेट रही थी,, उस रात में जिसमे उसे जागना जरूरी था इसलिए शायद वो अपनी नीदँ समेट रही थी.. अनदेखा कर रही थी उन आंखों को जो हमेशा उसे ही घूरते थे, उन हाथो को जो हमेशा उसी की ओर आते थे, भूलना चाह रही थी उन दरिंदो को जो उसके बदन के भूखे थे,, इन सबके साथ ही वो घुटन भरी राते समेट रही थी,, सपनो में आये उन ख्यालो, ख्वाबों, जज़्बातों के साथ ही उन हालातों को समेट रही थी जो उसे उस नन्ही को नही मालूम होने देना था,,, वो समेट रही थी अपनी आंखों को उसी नन्ही की तरफ साथ ही मुस्कुरा कर अपने चहरों पर बिखरे आसुओं को समेट रही थीं वो खुद को समेट रही थीं.................... ..... ........ ..... शिवम अग्रवाल.....

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए