भारत के महान #राजपूत_सम्राट_सुहेलदेव_बैस
राजा सुहेलदेव बैस 11वीं सदी में वर्तमान उत्तर प्रदेश में भारत नेपाल सीमा पर स्थित श्रावस्ती के राजा थे जिसे सहेत महेत भी कहा जाता है।
सुहेलदेव महाराजा त्रिलोकचंद बैस के द्वित्य पुत्र विडारदेव के वंशज थे,इनके वंशज भाला चलाने में बहुत निपुण थे जिस कारण बाद में ये भाले सुल्तान के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सुल्तानपुर की स्थापना इसी वंश ने की थी।
सुहेलदेव राजा मोरध्वज के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका राज्य पश्चिम में सीतापुर से लेकर पूर्व में गोरखपुर तक फैला हुआ था। उन्हें सुहेलदेव के अलावा सुखदेव, सकरदेव, सुधीरध्वज, सुहरिददेव, सहरदेव आदि अनेको नामो से जाना जाता है। माना जाता है की वो एक प्रतापी और प्रजावत्सल राजा थे। उनकी जनता खुशहाल थी और वो जनता के बीच लोकप्रिय थे। उन्होंने बहराइच के सूर्य मन्दिर और देवी पाटन मन्दिर का भी पुनरोद्धार करवाया। साथ ही राजा सुहेलदेव बहुत बड़े गौभक्त भी थे।
11वीं सदी में महमूद ग़ज़नवी ने भारत पर अनेक आक्रमण किये। उसकी मृत्यु के बाद उसका भांजा सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी की उपाधी लेकर 1031-33ई. में अपने पिता सालार साहू के साथ भारत पर आक्रमण करने अभियान पर निकला। ग़ाज़ी का मतलब होता है इस्लामिक धर्म योद्धा। मसूद का मकसद हिन्दुओ के तीर्थो को नष्ट करके हिन्दू जनता को तलवार के बल पर मुसलमान बनाना था। इस अभियान में उसके साथ सैय्यद हुसैन गाजी, सैय्यद हुसैन खातिम, सैय्यद हुसैन हातिम, सुल्तानुल सलाहीन महमी, बढ़वानिया सालार सैफुद्दीन, मीर इजाउद्दीन उर्फ मीर, सैय्यद मलिक दौलतशाह, मियां रज्जब उर्फ हठीले, सैय्यद इब्राहिम और मलिक फैसल जैसे सेनापति थे।
महमूद ने भारत में आते ही जिहाद छेड़ दिया। जनता को बलपूर्वक इस्लाम कबूलवाने के लिये उसने बहुत अत्याचार किये लेकिन कई ताकतवर राज्यो के होते मसूद को अपने इस अभियान में ज्यादा सफलता नही मिली। इसलिए उसने रणनीति बदल कर मार्ग के राजाओ से ना उलझ कर अयोध्या और वाराणसी के हिन्दू तीर्थो को नष्ट करने की सोची जिससे हिंदुओं के मनोबल को तोड़ा जा सके। वैसे भी उसका मुख्य लक्ष्य राज्य जीतने की जगह हिन्दू जनता को मुसलमान बनाना था इसलिये वो राजाओ की सेना से सीधा भिड़ने की जगह जनता पर अत्याचार करता था।
मसूद का मुकाबला दिल्ली के तंवर शासक महिपाल से भी हुआ था पर अतिरिक्त सेना की सहायता से वो उन्हें परास्त कर कन्नौज लूटता हुआ अयोध्या तक चला गया,मसूद ने कन्नौज के निर्बल हो चुके सम्राट यशपाल परिहार को भी हराया।
मालवा नरेश भोज परमार से बचने के लिए उसने पूरब की और बढ़ने के लिए दूसरा मार्ग अपनाया जिससे भोज से उसका मुकाबला न हो जाए,खुद महमूद गजनवी भी कभी राजा भोज परमार का मुकाबला करने का साहस नहीं कर पाया था।
सुल्तानपुर के युद्ध में भोज परमार कि सेना और बनारस से गहरवार शासक मदनपाल ने भी सेना भेजी ,जिसके सहयोग से राजपूतो ने मसूद कि सेना को सुल्तानपुर में हरा दिया और उनका हौसला बढ़ गया।
वहॉ से मसूद अपनी विशाल सेना लेकर सरयू नदी के तट पर सतरिख(बारबंकी) पहुँच गया।वहॉ पहुँच कर उसने अपना पड़ाव डाला। उस इलाके में उस वक्त राजपूतों के अनेक छोटे राज्य थे। इन राजाओं को मसूद के मकसद का पता था इसलिये उन्होंने राजा सुहेलदेव बैस के नेतृत्व में सभी राजपूत राज्यो का एक विशाल संघ बनाया जिसमे जिसमे बैस, भाले सुल्तान, कलहंस, रैकवार आदि अनेक वंशो के राजपूत शामिल थे। इस संघ में सुहेलदेव के अलावा कुल 17 राजपूत राजा शामिल थे जिनके नाम इस प्रकार है- राय रायब, राय सायब, राय अर्जुन, राय भीखन, राय कनक, राय कल्याण, राय मकरु, राय सवारु, राय अरन, राय बीरबल, राय जयपाल, राय हरपाल, राय श्रीपाल, राय हकरु, राय प्रभु, राय देवनारायण, राय नरसिंहा।
सालार मसूद के आक्रमण का सफल प्रतिकार जिन राजा-महाराजाओं ने किया था उनमें गहड़वाल वंश के राजा मदनपाल एवं उनके युवराज गोविंद चन्द्र ने भी अपनी पूरी ताकत के साथ युद्ध में भाग लिया था। इस किशोर राजकुमार ने अपने अद्भुत रणकौशल का परिचय दिया। गोविंद चन्द्र ने अयोध्या पर कई वर्षों तक राज किया।
सुहेलदेव बैस के संयुक्त मोर्चे में भर जाति के राजा भी शामिल थे,भर जनजाति सम्भवत प्राचीन भारशिव नागवंशी क्षत्रियों के वंशज थे जो किसी कारणवश बाद में अवनत होकर क्षत्रियों से अलग होकर नई जाति बन गए थे,बैस राजपूतों को अपना राज्य स्थापित करने में इन्ही भर जाति के छोटे छोटे राजाओं का सामना करना पड़ा था। ये सब एक विदेशी को अपने इलाके में देखकर खुश नही थे। संघ बनाकर उन्होंने सबसे पहले मसूद को सन्देश भिजवाया की यह जमीन राजपूतो की है और इसे जल्द से जल्द खाली करे।
मसूद ने अपने जवाब में अपना पड़ाव यह कहकर उठाने से मना कर दिया की जमीन अल्लाह की है।
मसूद के जवाब के बाद युद्ध अवश्यम्भावी था। जून 1033ई. में मसूद ने सरयू नदी पार कर अपना जमावड़ा बहराइच में लगाया। राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में राजपूतो ने बहराइच के उत्तर में भकला नदी के किनारे अपना मोर्चा जमाया। जब राजपूत युद्ध की तैयारी कर ही रहे थे तभी रात के वक्त अचानक से मसूद ने हमला कर दिया जिसमे दोनों सेनाओ को बहुत हानि हुई।
इसके बाद चित्तोरा झील के किनारे निर्णायक और भयंकर युद्ध हुआ जो 5 दिन तक चला। मसूद की सेना में 1 लाख से ज्यादा सैनिक थे जिसमे 50000 से ज्यादा घुड़सवार थे जबकि राजा सुहेलदेव की सेना में 1 लाख 20 हजार राजपूत थे।
इस युद्ध में मसूद ने अपनी सेना के आगे गाय, बैल बाँधे हुए थे जिससे राजपूत सेना सीधा आक्रमण ना कर सके क्योंकि राजपूत और विशेषकर राजा सुहेलदेव गौ भक्त थे और गौ वंश को नुक्सान नही पहुँचा सकते थे, लेकिन राजा सुहेलदेव ने बहुत सूझ बूझ से युद्ध किया और उनकी सेना को इस बात से ज्यादा फर्क नही पड़ा और पूरी राजपूत सेना और भर वीर भूखे शेर की भाँति जेहादियों पर टूट पड़ी। राजपूतो ने जेहादी सेना को चारों और से घेरकर मारना शुरू कर दिया। इसमें दोनों सेनाए बहादुरी से लड़ी और दोनों सेनाओं को भारी नुक्सान हुआ। ये युद्ध 5 दिन तक चला और इसका क्षेत्र बढ़ता गया। धीरे धीरे राजपूत हावी होते गए और उन्होंने जेहादी सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया।
लम्बे भाले से लड़ने में माहिर बैस राजपूत जो बाद में भाले सुल्तान के नाम से माहिर हुए उन्होंने अपने भालो से दुश्मन को गोदकर रख दिया।
किवदन्ती के अनुसार अंत में राजा सुहेलदेव का एक तीर मसूद के गले में आकर लगा और वो अपने घोड़े से गिर गया। बची हुई सेना को राजपूतों ने समाप्त कर दिया और इस तरह से मसूद अपने 1 लाख जेहादीयों के साथ इतिहास बन गया।
विदेशी इतिहासकार शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती ने सालार मसूद की जीवनी "मीरात-ए-मसूदी" में लिखा है "इस्लाम के नाम पर जो अंधड़ अयोध्या तक जा पहुंचा था, वह सब नष्ट हो गया। इस युद्ध में अरब-ईरान के हर घर का चिराग बुझा है। यही कारण है कि दो सौ वर्षों तक मुसलमान भारत पर हमले का मन न बना सके।"
राजा सुहेलदेव के बारे में ये कहा जाता है की वो भी अगले दिन मसूद के एक साथी के द्वारा मारे गए लेकिन कई इतिहासकारो के अनुसार वो युद्ध में जीवित रहे और बाद में कन्नौज के शाशको के साथ उन्होंने एक युद्ध भी लड़ा था।
इस युद्ध की सफलता में राजा सुहेलदेव बैस के नेतृत्व, सन्गठन कौशल और रणनीति का बहुत बड़ा हाथ था। इसीलिए आज भी राजा सुहेलदेव बैस को इस अंचल में देवता की तरह पूजा जाता है।
श्रीराम जन्मभूमि का विध्वंस करने के इरादे से आए आक्रांता सालार मसूद और उसके सभी सैनिकों का महाविनाश इस सत्य को उजागर करता है कि जब भी हिन्दू समाज संगठित और शक्ति सम्पन्न रहा, विदेशी शक्तियों को भारत की धरती से पूर्णतया खदेड़ने में सफलता मिली। परंतु जब परस्पर झगड़ों और व्यक्तिगत अहं ने भारतीय राजाओं-महाराजाओं की बुद्धि कुंठित की तो विधर्मी शक्तियां भारत में पांव पसारने में सफल रहीं।
लेकिन विडंबना यह है की जो सैयद सालार मसूद हिन्दुओ का हत्यारा था और जो हिन्दुओ को मुसलमान बनाने के इरादे से निकला था, आज बहराइच क्षेत्र में उस की मजार को ग़ाज़ी का नाम देकर पूजा जाता है और उसे पूजने वाले अधिकतर हिन्दू है। बहराइच में एक पुराना सूर्य मन्दिर था जहाँ एक विशाल सरोवर था जिसके पास मसूद दफन हुआ था। तुग़लक़ सुल्तान ने 14वीं सदी में इस मन्दिर को तुड़वाकर और सरोवर को पटवाकर वहॉ मसूद की मजार बनवा दी। हर साल उस मजार पर मेला लगता है जिसमेँ कई लाख हिन्दू शामिल होते है।
राजा सुहेलदेव बैस जिन्होंने हिंदुओं को इतनी बड़ी विपदा से बचाया, वो इतनी सदियोँ तक उपेक्षित ही रहे। शायद वीर क्षत्रियो के बलिदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का हिन्दुओ का ये ही तरीका है। कुछ दशक पहले पयागपुर के राजा साहब ने 500 बीघा जमीन दान में दी जिसपर राजा सुहेलदेव बैस का स्मारक बनाया गया और अब वहॉ हर साल मेला लगता है।
इस युद्ध में राजपूतो के साथ भर और थारू जनजाति के वीर भी बड़ी संख्या में शहीद हुए,राजपूतों के साथ इस संयुक्त मौर्चा में भर और थारू सैनिको के होने के कारण भ्रमवश कुछ इतिहासकारों ने सुहेलदेव को भर या थारू जनजाति का बता दिया जो सत्य से कोसो दूर है क्योकि स्थानीय राजपुतो की वंशावलीयो में भी उनके बैस वंश के राजपूत होने के प्रमाण है। सभी किवदन्तियो में भी उनहे राजा त्रिलोकचंद का वंशज माना जाता है और ये सर्वविदित है की राजा त्रिलोकचंद बैस राजपूत थे।