आज फिर चीख उठा मेरा गला
जब देखा एक अधेड़ उम्र व्यक्ति को
आदी रात तक ईंट सिर पर लिए दो वक्त की रोटी को
पेट भर कर देने आपनी पत्नी , बेटे और बेटी को
आज फिर मजबूर हो गया था यह कहने को
कि हे मानब बस कर और रुक कर देख !
तू देख तो सही कि तेरे बिना इस समाज की रफ्तार होती है क्या
तू जगाता रहा जिस दुनिया को आज तक
तेरे ना होने से सोती है क्या
कुछ कमी होती है क्या , रफ्तार मे कोई नरमी होती है क्या
हे मानब बस कर और रुक कर देख !
क्यू चला जाता है बर्फ से लदे हुए पहाड़ो पर
क्यू रात गुजारता है जंगलो मे; क्यू ज़िन्दगी को कष्ट दे रहा आग के अंगारो पर
ज़रा परीक्षा तो ले उनकी जो आज तेरे से महान होने का दाबा करते है
हे मानब बस कर और रुक कर देख !
तेरी बनाई हूई बस्तु , जिस पर वो रोज अपना जीवन आसान करते है
ज़रा दे तो सही एक बार उनके हाथ मे कमान
और कर ले खुद को किनारे , फिर देख कुछ फर्क पडता है क्या
जिस समाज को तू सक्षम बनाता रहा ,
ज़रा देख तो ले वो इस कगार तक पहुंचा है क्या
क्या सच मे वो इस लायक हो गया कि तेरी उसे जरुरत नही
हे मानब बस कर और रुक कर देख !
तुझे दिखाते है तेरी गल्तियों का आईना
जिनके खुद के आईने मे कभी धूल नही हटी
तेरे ही बनाए कानून , तेरे ही साथी , तेरे पर ही बेमतलब ठोके जाते है
तू चाहता तो बादल सकता था सारी काया
तेरी चाहत थी उनके आईने मे खुद का चेहरा देखने की
यह ईशा जरा अब अजमा तो ले , क्या सच मे कुछ बादल गया है
कब तक यू मरता रहेगा , क्यू और अखिर कब तक
हे मानब बस कर और रुक कर देख !
हा मै जानता हू तू वो वर्ग नही जिस पर कूछ लिखा जाए
तू वो वर्ग नही जिसकी चिन्ता की जाए
सब ने अपने अपने काम की किमत तह कर ली
तू खुद के खून का हिसाब मंग कर देख
सब को सब कुछ दिल खोल कर दिया तुने
अब जरा खुद भी सक्षम हुए समाज से कुछ मंग कर देख
आजमा तो सही कौन क्या क्या देता है , और किसके सिन्हे मे दर्द होता है !
इसलिए, हे मानब बस कर और रुक कर देख !
विजय जम्वाल !