हर तरफ धुंध है,
कोहरा सा छाया,
या मन का भरम है,
वो धुंधला सा साया ।
यादों की टीस से,
ऐंठता है बदन,
जब भी आता है,
ठंडी हवा का झोंका ।
मुद्दतें गुज़रीं,
मुलाक़ात हुए,
हमसाया थे जो,
हमसफ़र ना हुए ।
अब तो तन्हाई है,
मालिक मेरी,
जब से मेरी रूह के,
वो रहबर ना हुए ।
हर तरफ धुंध है,
कोहरा सा छाया,
या मन का भरम है,
वो धुंधला सा साया ।
( 14/09/11 को मनोज वशिष्ठ द्वारा रचित )