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औरत के लिए औरत

औरत के लिए औरत

इन लेखों में जीवन की आंच भी है और आस भी कि स्वयं नारी अपने प्रति होते हुए अत्याचारों और शोषण का रुख बदलेगी.. पुस्तक में सिर्फ महिलाओं पर किये जा रहे अत्याचारों और हिंसा का उल्लेख्य है, उन्होंने कहीं भी कामयाबी की सीढ़िया चढ़ रही महिलाओं का जिक्र नही क

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औरत के लिए औरत

औरत के लिए औरत

इन लेखों में जीवन की आंच भी है और आस भी कि स्वयं नारी अपने प्रति होते हुए अत्याचारों और शोषण का रुख बदलेगी.. पुस्तक में सिर्फ महिलाओं पर किये जा रहे अत्याचारों और हिंसा का उल्लेख्य है, उन्होंने कहीं भी कामयाबी की सीढ़िया चढ़ रही महिलाओं का जिक्र नही क

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 मन के मंजीरे

मन के मंजीरे

‘‘ठिठुरते जाड़े में, तेरे प्रेम की गरमाहट से,सूफ़ी क़लंदर के तन पर लिपटी, मोटी सूती चादर से,हमारी फ़क़ीरी के आलम में, इश्क़ की नवाबी शान से,संजीदा उमरों के बीच, दिल की शोख़ नादानियों सेतेरे कांधे पर रखे सर से, मिलने वाली राहत से,तेरे हौसले, भरोसे और अपनेपन

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 मन के मंजीरे

मन के मंजीरे

‘‘ठिठुरते जाड़े में, तेरे प्रेम की गरमाहट से,सूफ़ी क़लंदर के तन पर लिपटी, मोटी सूती चादर से,हमारी फ़क़ीरी के आलम में, इश्क़ की नवाबी शान से,संजीदा उमरों के बीच, दिल की शोख़ नादानियों सेतेरे कांधे पर रखे सर से, मिलने वाली राहत से,तेरे हौसले, भरोसे और अपनेपन

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दुमछल्ला

दुमछल्ला

जब इंसान अंदर से टूटता है तो वो अपनी बात समझाने के तरीके ढूँढने लगता है । और जब अंदर भावनाओं का ज्वार उठ रहा हो और सुनने वाला कोई न हो, तो वो खुद के लिए फैसलें लेता है । बेशक वो समाज की मान्यताओं में सही न हो लेकिन वो फिर भी अपने हक़ में फैसलें लेता ह

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दुमछल्ला

दुमछल्ला

जब इंसान अंदर से टूटता है तो वो अपनी बात समझाने के तरीके ढूँढने लगता है । और जब अंदर भावनाओं का ज्वार उठ रहा हो और सुनने वाला कोई न हो, तो वो खुद के लिए फैसलें लेता है । बेशक वो समाज की मान्यताओं में सही न हो लेकिन वो फिर भी अपने हक़ में फैसलें लेता ह

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शोर... अंतर्मन का कोलाहल

शोर... अंतर्मन का कोलाहल

शोर... अंतर्मन का कोलाहल या कहें की शून्यता, बाहर की अव्यवस्थित व्यवस्था से अलग, चिंतित मन का व्यथित लेकिन व्यवस्थित सुर है जो किसी भी इंसान को जीने की वजह भी देता है और जीने का उद्देश्य भी लेकिन आख़िर यह शोर पनपता ही क्यूँ है? कौन सही है, कौन गलत? कौ

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शोर... अंतर्मन का कोलाहल

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शोर... अंतर्मन का कोलाहल या कहें की शून्यता, बाहर की अव्यवस्थित व्यवस्था से अलग, चिंतित मन का व्यथित लेकिन व्यवस्थित सुर है जो किसी भी इंसान को जीने की वजह भी देता है और जीने का उद्देश्य भी लेकिन आख़िर यह शोर पनपता ही क्यूँ है? कौन सही है, कौन गलत? कौ

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 वापसी इम्पॉसिबल

वापसी इम्पॉसिबल

ऑनलाइन हो चुकी दुनिया में जब सोशल मीडिया के आभासी मोह में पँसा हर दूसरा इन्सान यह सोचने लगा है कि ‘प्यार-व्यार झमेला है, कुछ दिनों का खेला है' तब अचानक सच्चा प्यार दिल के किसी काने में घर बसा लेता है। कभी पहचान लिया जाता है तो कभी पहचान कर भी मजबूरिय

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ऑनलाइन हो चुकी दुनिया में जब सोशल मीडिया के आभासी मोह में पँसा हर दूसरा इन्सान यह सोचने लगा है कि ‘प्यार-व्यार झमेला है, कुछ दिनों का खेला है' तब अचानक सच्चा प्यार दिल के किसी काने में घर बसा लेता है। कभी पहचान लिया जाता है तो कभी पहचान कर भी मजबूरिय

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 ढाई चाल

ढाई चाल

सत्ता की हिस्सेदारी के लिए कुछ तबकों के बीच ठनी वर्चस्व की लड़ाई, जिनकी तरफ देश की आम जनता बड़ी उम्मीदों से ताकती रहती है। एक बलात्कार को राजनीति की बिसात बना देने वालों की कहानी, जिनसे लोग न्याय के लिए साथ की अपेक्षा रखते हैं। धर्म, जाति, मीडिया

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199/-

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सत्ता की हिस्सेदारी के लिए कुछ तबकों के बीच ठनी वर्चस्व की लड़ाई, जिनकी तरफ देश की आम जनता बड़ी उम्मीदों से ताकती रहती है। एक बलात्कार को राजनीति की बिसात बना देने वालों की कहानी, जिनसे लोग न्याय के लिए साथ की अपेक्षा रखते हैं। धर्म, जाति, मीडिया

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लेटलतीफ़ लव

लेटलतीफ़ लव

लेटलतीफ़ लव कहानी है एक ऐसे 60 वर्षीय अधेड़ की, जिसे दुनिया सिरे से ही भ्रम पूर्ण प्रतीत होती थी। वह पेशे से डॉक्टर था, वह भी दिल का परंतु दिल के इमोशंस से गैर वाकिफ । वह हमेशा अपने पेशेंट से घिरा रहता था और कईयों की जिंदगियां उसकी वजह से ही गुलजार थी

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लेटलतीफ़ लव कहानी है एक ऐसे 60 वर्षीय अधेड़ की, जिसे दुनिया सिरे से ही भ्रम पूर्ण प्रतीत होती थी। वह पेशे से डॉक्टर था, वह भी दिल का परंतु दिल के इमोशंस से गैर वाकिफ । वह हमेशा अपने पेशेंट से घिरा रहता था और कईयों की जिंदगियां उसकी वजह से ही गुलजार थी

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उफ़्फ़ कोलकाता

उफ़्फ़ कोलकाता

‘उफ़्फ़ कोलकाता’ हिंदी भाषा की पहली हॉरर कॉमेडी कही जा सकती है। इस लिहाज़ से यह एक पहल भी है। कोलकाता के बाहरी भाग में फैले एक विश्वविद्यालय का हॉस्टल, उपन्यास के मुख्य किरदारों की ग़लती से अभिशप्त हो जाता है। एक आत्मा जो अब हॉस्टल में है, बच्चों को परे

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‘उफ़्फ़ कोलकाता’ हिंदी भाषा की पहली हॉरर कॉमेडी कही जा सकती है। इस लिहाज़ से यह एक पहल भी है। कोलकाता के बाहरी भाग में फैले एक विश्वविद्यालय का हॉस्टल, उपन्यास के मुख्य किरदारों की ग़लती से अभिशप्त हो जाता है। एक आत्मा जो अब हॉस्टल में है, बच्चों को परे

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 जनता स्टोर

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नब्बे का दशक सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों के लिए इस मायने में निर्णायक साबित हुआ कि अब तक के कई भीतरी विधि-निषेध इस दौर में आकर अपना असर अन्तत: खो बैठे। जीवन के दैनिक क्रियाकलाप में उनकी उपयोगिता को सन्दिग्ध पहले से ही महसूस किया जा रहा था लेकिन अब आक

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नब्बे का दशक सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों के लिए इस मायने में निर्णायक साबित हुआ कि अब तक के कई भीतरी विधि-निषेध इस दौर में आकर अपना असर अन्तत: खो बैठे। जीवन के दैनिक क्रियाकलाप में उनकी उपयोगिता को सन्दिग्ध पहले से ही महसूस किया जा रहा था लेकिन अब आक

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