shabd-logo

शब्दों का शहर

3 दिसम्बर 2021

31 बार देखा गया 31

शब्दों का शहर


"कविताओं का संग्रह"











नरेन्द्र नवप्रभात 



शब्दों का शहर (कविताओं का संग्रह) मेरी पहली हिन्दी भाषा में किताब है। मेरी पहली किताब "I & THE MIRROR" थी, जो अंग्रेजी भाषा में थी। कवितायें अलग अलग विषय पर बनायीं गयी हैं, जैसे कुछ कवितायें हमें अच्छे जीवन की ओर प्रेरित करेंगी, कुछ कवितायें मनोभाव का मार्मिक व्याख्या करेंगी। इसी प्रकार छोटी छोटी वस्तुओं का महत्व...और हमारा उनके प्रति नजरिया क्या है, इन्ही सब का विचार कर के, एक छोटी सी कोशिश है। ये सारी रचनाएँ मेरी हैं। हमारा उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाना नहीं है।भूलवश किसी को आपत्ति पहुंचती है तो उसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।



                                               नरेन्द्र नवप्रभात 

E Mail-  nnavprabhat016@gmail.com 


                


विषय सूची 

  1. मेरे शब्द

  2. बेवजह

  3. शब्दों का मिलन

  4. ख्वाहिश

  5. खामोशी

  6. सूखा तिनका

  7. एक नन्ही चिड़िया 

  8. क्या होगी मजबूरी

  9. रूदन

  10. हमारा उद्देश्य

  11. बिछड़कर 

  12. अल्फाज़ 

  13. मैं अकेला ही सही

  14. समझ

  15. बहुत बुरा हुआ

  16. इन्तजार

  17. माँ 

  18. मेरे मेले

  19. तू सोम रस...तू काव्य रस…

  20. वो धूल

मेरे शब्द


दूर से ही पहचान कर…

उठा लिया शब्दों को,

जो सहमें हुये

भीड़ में एकटक मुझे निहार रहे थे।


यत्र तत्र सर्वत्र पड़े…बिखरे

कायनात की मंशा भाँपकर

बवंडर का सहारा लिये

उड़ते हुये दूर गगन

बादलों मे छिपकर ….

अवलोकन उस शख़्स का…

जो बेचैनी से

खोज पड़ताल करता हुआ

यहाँ वहाँ भटकते….

दूरदर्शी निगाहों का प्रयोग करते हुए

तारों में परछाई देख शब्दों का,

मिन्नतें बादलों से करते हुए

पाकर शब्दों के बूंदों को

इकट्ठा कोरे कागज पर करता गया।



 बेवजह 

बेवजह ही था….

जो बेवजह लोगों की,

बेवजह बातों से…

बेवजह ही बयाँ होती रही.

बस बेवजह ही था।


कुछ अल्फाज़…

उन बादलों के बेवजह टकराने से…

बेवजह गिरी बिजली जैसी होती है,

जो बेवजह ही हमें परेशान करती है….

बस बेवजह ही था ।


बेवजह ही थी कुछ खुशियाँ 

जो बनावटी बातों से

बेवजह ही आनंदित करती

और बस……

बेवजह ही खोता गया…

उस उजालों में जो…

बस बेवजह ही था ।


शब्दों का मिलन


अभी अभी डूब कर उभरा हूँ शब्दों से….

खाली पन्ने ने बेचैन बहुत किया था।


पूरे आसमान की खामोशी

और हवाओं की चुप्पी

बादलों के झुंडों का एकटक बस देखते रहना

और उस बंजर जमीन की लालसा

एक मुकम्मल बूँद की तरफ बांहे फैलाये

अचानक से लहरों का दबाव

सदियों से दबे ज्वालामुखी 

धीरे धीरे रेत के कणों का आपस मे मिलन

और कायनात की चाहत जब रिसने लगी

शब्दों के सैलाब से सराबोर होता 

जहाँ तहाँ पड़े शब्दों को उठाता हुआ

कर लिया भण्डार उस आशियाने में 

जहाँ शब्दों के सिवा कुछ भी नहीं था….

अभी अभी डूब कर उभरा हूँ शब्दों से….

खाली पन्ने ने बेचैन बहुत किया था।

ख्वाहिश 


कुछ ख्वाहिशें जो अक्सर 

मेरे ही आशियाने पे…

निरन्तर बरसती थी।

भीग जाता था रातों में…

तरबतर तो दिनभर करती थी।

निकलना चाहा जब भी बाहर की तरफ

तो ये पैगाम देती थी

कड़कती हूई बिजलियों का…

हर वो साजो सामान 

भर भर के देती थी।


कुछ ख्वाहिशें जो अक्सर

मेरे ही आशियाने पे…

निरन्तर बरसती थी।


खामोशी


बड़ी चालाक है ये खामोशी

बस खुद से ही गुनगुना लेती है,

बलखाती है तरंगों सी कहीं 

बस खुद को समेट लेती है,

बड़ी चालाक है ये खामोशी

बस खुद से ही गुनगुना लेती है।


कभी करती गुफ्तगू ये गहन

तो कभी सिसक लेती है,

कभी होती बड़ी मजबूर

तो कभी ठहाके भी लगाती है,

बड़ी चालाक है ये खामोशी

बस खुद से ही गुनगुना लेती है।


सूखा तिनका


सूखा तिनका हुआ जब बड़ा बेअसर

जो मिला उसके रंग में खुद रंग गया

खुद जो तनहा था और आवारा भी

जो चला फ़िर वो हरदम चलता गया।


जो मैं रोका उसे लाख दुहाई के साथ

पर तुफान के साथ आसमान मे गया

उड़ता रहा वो हवाओं में लेकर तरंग

जो उड़ा वो अनंत तक उड़ता गया।


था गिरा वो जमीं पर बेसुध मगर

थी बारिश का पानी और नहाता गया

मिला जब वो नदी से पूरे तेवर में था

घाट से घाट वो पग बदलता गया।


दूर पक्षी ने उस पर नजर डाली तब

अपने घर वास्ते उसको लेकर गया

बन के अब आशियाना किसी और का

दूसरों को मुसीबत से बचाता गया।


एक नन्ही चिड़िया


जब खोजा मन को अपने

पाया मैने निशा उसके

थी एक चिड़िया नन्ही सी वो

नहीं थे अभी पंख उसके।


टुक टुक नजर दौड़ाती थी वो

पास नहीं आती थी वो

देखकर इस दुनियाँ का दस्तूर

सहमें हुए कदम थे उसके।


करती प्रयास उड़ने का वो 

फुदक फुदक कर चलती थी

इन अलबेले राहों पर

पड़े नही थे कदम उसके।


किंकर्तव्यविमूढ़ बन कर वह

मन्द मन्द कुछ कहती थी

उड़ना चाहती थी बहुत पर वो

साथ ना दिये हिम्मत उसके।


दिन गुजरा ...महिना गुजरा

निकल आये जब पंख उसके

दूर गगन की ओर जाकर

कदम तले थी दुनियाँ उसके।


क्या होगी मजबूरी


क्या होगी मजबूरी

जो बार बार लौट जाती है

अपनी ही लहरों को 

बार बार बुला जाती है।


क्या होगी मजबूरी 

जो बार बार लौट जाती है।


कोई सूरतें बयाँ 

कभी ना दिखी होगी

पर हर किनारे पर

बार बार टूट जाती है।


कया होगी मजबूरी 

जो बार बार लौट जाती है।


चीखती ही रहती है

खुले गगन तले

पर अपनी हर आवाज़ 

खुद की लहरों से दबा जाती है।


क्या होगी मजबूरी

जो बार बार लौट जाती है।


रूदन


सोंचा चलो आज रो लूँ मैं 

इन दरमया अल्फाजों के

कुछ बात चुन लूँ मैं 

सोंचा चलो आज रो लूँ मैं।


खलिश थी खुशियों में कहीं 

जो इनसे रूसवा हम हुये

टूटे हुये सपनों की

एक डोर रख लूँ मैं 

सोंचा चलो आज रो लूँ मैं।


स्याह रातों की खामोशी में 

कुछ गुफ्तगू खुद से कर लूँ मैं 

जो थी अपनी दस्तानें -बयाँ 

चर्चा-ए खुद से कर लूँ मैं 

सोंचा चलो आज रो लूँ मैं।


आँखो की गहराईयों से

अश्कों को निकाल लूँ मैं 

अब तक जो थी बंजर जमीं 

उस पर प्रहार कर लूँ मैं

सोंचा चलो आज रो लूँ मैं।


हमारा उद्देश्य 


हजारों खाक में मिल गये

जागने से पहले

कुछ सोंचा ही नहीं था

जो सोने से पहले।


दुनियाँ को मंजूर नहीं 

सोते हुये दिखे जो सपने

यहाँ तो होता है कर्म

दुनियाँ छोड़ जाने से पहले।


घटायें कितनी भी काली हो

चाहे बिजली क्यों ना कड़के

वो बरसती नहीं हैं 

दस्तक देने से पहले।


हवाएँ निरन्तर बहती हैं 

जब बढ़ाती हैं रफ्तार अपनी

धूल और तिनके भी होते हैं साथ

तुफान बनने से पहले।


नदियाँ कितनी भी छिछली हों 

चाहे अनेक बाधा हो

वो छोड़ती नहीं है पथ अपना

सागर में मिलने से पहले।


निकला सूरज आसमान में

सारे जग को करता रोशन

अपना हर कर्तव्य निभा जाता है

प्रतिदिन ढलने से पहले।


अपनी आत्मा को टटोलकर

कर लो तुम दृढ़ निश्चय

कुछ निशानी देकर जाओ

दुनियाँ छोड़ जाने से पहले।


          बिछड़कर 


मिल कर बिछड़ते हो और

ना जाने फ़िर क्यूँ मिल जाते हो…

इन दरमया दूरी

कुछ कम कर जाते हो,

तकलीफ़ तो बहुत होती है

पर क्या बतलायें तुम्हें,

बहुत आसान है कुछ कहना…

इन शब्दों से…

कुछ देर रुको...सोंचो...और समझो 

हर बार...बारबार

मजबूरियों का ही हवाला क्यूँ दे जाते हो।

मिल कर बिछड़ते हो और

ना जाने फ़िर क्यूँ मिल जाते हो।

अल्फाज़ 


कुछ देर ठहर जाओ

कुछ अल्फाज़ जो बरसों से दबे थे,

उनको मिट्टी से निकलने दो

बन जाने दो वृक्ष…

उन अनगिनत शाखाओं की

जिसमें खुशियों के शब्द

निरंतर निकलते रहेंगे,

वरना वक्त की नाव को

गमों के थपेडे पड़ते रहेंगे,

लड़खड़ाती हुई सहमी हुई 

अविश्वास के मझधार में 

गोता लगाते….

बस बहता ही जायेगा।



मैं अकेला ही सही


मैं अकेला ही सही 

बस चल पड़ा 

गम को भरकर

खुशी को चेहरे पे बिठाकर

मैं अकेला ही सही।


याद रहते हैं…

कुछ सपनें...कुछ बातें 

कुछ पूरी थी, तो कुछ छूट गयी

उन अनजान रास्तों पे

जहाँ बचपन गुजार दिया,

हर लम्हों से थे वाकिफ

पर चेहरे बदल गये या…….

नकाब पहन लिया,

क्या मालूम….

पर... मैं अकेला ही सही।


समझ


समझ समझ कर इतना समझा

जो समझा मैं वो ना समझा

हर समझ को समझकर समझा

जो मिला मैं उसको समझा।


हर बातों में कुछ तो समझा

कुछ दुनियाँ के ठोकरों को समझा

दिन को समझा रात को समझा

हर बीते अल्फाज को समझा।


धड़कन को समझा सांसों को समझा

जीवन के हर डगर को समझा

आंखों के अश्कों को समझा

तनहाई के पल को समझा।


अपनों को समझा गैरों को समझा

दुनियाँ के हर डगर को समझा

रिश्तों को समझा नातों को समझा

प्यार और नफरत को समझा।


पर एक बात नहीं मैं समझा

जो नहीं समझा क्यूँ नहीं समझा

जब मैने उनको था समझा

तब उन्होने मुझको नहीं समझा।


बहुत बुरा हुआ


बहुत बुरा हुआ…

जो वक्त ने करवट बदल लिया।



अभी और भी बातें थी

जो जाननी थी,

कुछ चोट थे जो खाने थे

कुछ रुसवाईयाँ थी जो सहनी थी,

पर बहुत बुरा हुआ…

जो वक्त ने करवट बदल लिया।


नहीं चाहिये ये दो पल की खुशियाँ 

वो गम ही अच्छे थे…

जो दशकों से साथ थे

अपने पराये का भेद तो था,

अब सब अच्छे….

अब बुराई भी अच्छी लगती है लोगों को।


बहुत बुरा हुआ…

जो वक्त ने करवट बदल लिया।


       

इन्तजार


हजारों दीप जलाकर मैं 

बस इन्तजार ही करता हूँ 

अपने हर शब्दों को मैं 

बस जुबां में ही रखता हूँ।


जलकर खाक ना हो सके

बस यही बात अखरती है

सपनों के इन्तजार की खातिर 

अपने जीगर को सम्हाले रखता हूँ।


बस इन्तजार ही रहता है

दिल मे बसने वालों का

उनकी मौजूदगी को मैं 

सीने मे दफनाए रखता हूँ।


खलिश है ये हवाओं की

जो उस पार नहीं जाती हैं 

सिमट जाती हैं इस ओर ही

बस झूठी पैगाम रखता हूँ।


इन्तजार है उन सपनों का

जो पाने की है तड़प मेरी

हकीकत हो जाती है ओझल जल्दी

बस परछाइयां ही रखता हूँ।


सांसें अब तो कहती अक्सर

इतनी भी इन्तहां मत लो मुझसे

डोर बहुत ही नाजुक है…..

बस इसको थामें रखता हूँ।



माँ 


इस जीवन मे जब से आया

एक ठण्डी छाँव मैने पाई है

जब जब रोया होकर बेबस

बस वो ममता ही मैने पायी है।


किंकर्तव्यविमूढ़ होता जब

राह हमें बतलाती है

अपनी हर अच्छी बातों से

सबक बड़ा सिखलाती है।


होती थी परेशान

पर कभी ना जताती मुझको

दुनियाँ की हर…

खराब नजरों से बचाती मुझको।


इस भागदौड़ के जीवन से

बस माँ की ममता प्यारी है

थक जाता हूँ जब जीवन से

उसकी लोरी याद आती है।


क्या उपकार की बात करें 

ये ओहदा ही सबसे भारी है

इस संसार मे सबसे श्रेष्ठ 

बस यही हमारी माई है।



मेरे मेले


कितने ही मेले देखे

और ना जाने कितने छूट गये

अपने ही कितने देखे 

जो बेगाने जैसे हो गये।


आँखो में बसे जो मेले

वो पलकों में ही रह गये

पर दुनियाँ मे दिखे जो मेले

उनमें अब कम ही लोग रह गये।


कितने ही मेले ठुकराए 

और कितनों मे शामिल हो गये

कुछ तो फरमायें 

तो कुछ जुबां में ही रह गये।


घूमते तो रहे इन गलियों मे बेतहाशा

पर मालूम…..

इन मेलों में ही हम कहीं खो गये।

कितने ही मेले देखे

और ना जाने कितने खो गये।



तू सोम रस...तू काव्य रस…


तू सोम रस...तू काव्य रस…

हर रोज तुमको पीता हूँ 

जिस रोज जब ज्यादा होता

मैं शाम सवेरे लिखता हूँ।


काव्यांजली बन जाती है

जब गीत तुम्हारे पढ़ता हूँ 

खो जाती हो अक्सर तुम तब

खुद ही में खोजा करता हूँ।


मन मस्तिष्क जो खोज ही ले

वो पता तुम्हारा लिखता हूँ 

बे-आबरू होकर लौटता हूँ 

जब साया तुम्हारा पाता हूँ।


पथरीले से इन आंखों में 

तस्वीर तुम्हारी गढ़ता हूँ 

सूखे अश्कों की धारा में 

मैं तुमको देखा करता हूँ।


अविरल धारा बहती हो जैसे

घटाओं और फिजाओं में 

सांसों की हर ऋचाओं में 

मैं तुमको बुना करता हूँ।



तू सोम रस … तू काव्य रस…

हर रोज तुमको पीता हूँ,

जिस रोज जब ज्यादा होता

मैं शाम सवेरे लिखता हूँ।



वो धूल


घरौंदे पर जा बैठी

एक मिसाल दे गयी

थी किसी के चरणों की धूल

एक हिसाब दे गयी।


पर कुछ कहना था जमाने को

जो हर बार सम्हलती गयी

इन्तजार था समय का

इसलिये बारम्बार थमती गयी।


था सावन एक आस

उसकी उमंगों का

अपनी हर जर्रे की

वो कहानी गढ़ती गयी।


जब झोंकें से हुआ मिलन

तो अनंत तक उड़ गयी

लिपटकर बूंदों से

बंजर जमीं पर आ गयी।


हुआ खुशनुमा ये जहाँ 

एक उमंग दे गयी

खुद तो खो गयी

पर मालूम…..

अपनी भीनी सी महक दे गयी।


घरौंदे पर जा बैठी

एक मिसाल दे गयी।




About the Author 

This is my second book but this is my first book in Hindi language, through which people have tried to make People aware, positive or have feelings. Narendra Navprabhat runs an organization (Shree Navdeep Shiksha Samajottan Samiti) through which children try to give free education, make people aware to avoid diseases, Plants saplings , Motivate them for Cleanliness , provide food to children, for sport also encourage. The Author is a social worker .


The poem are the work of a very intelligent man. Wonderful collection of poems-Mandakini.


Narendra Navprabhat 

E-mail:nnavprabhat016@gmail.com 











किताब पढ़िए

लेख पढ़िए