शहर का रास्ता
मन के भटकने से जीवन में जो परिवर्तन होते है, वो मन ही नहीं जमीन भी बदल देते है। जब छोटे से गांव और अपनों के मन कम हो जाते है, जब जेबों का वजन और घर में अनाज कम हो जाता है, जब मान- सम्मान और रोटी की कमी हो जाती है। तो एक अदना सा समझदार सा थोड़ा नासमझ सा आदमी भी शहरो का रास्ता पकड़ लेता है।
वो अपने अधूरे सपने, अपनी अधूरी आकांक्षाए जो गांव में पूरी नहीं हो पा रही है उन जरूरतों को पूरा करने के लिए शहरो की तरफ काम की तलाश में और उम्मीदों की आस में भटकता रहता है।
लेकिन वो नासमझ उसे क्या पता इन शहरो के मायाजाल में वो गांव में क्या छोड़ आया है। वो गांव की बेफिक्री, सुख, हरियाली, अपनों का प्यार-तकरार, पडोसी का अपनापन उनका प्यार से लड़ना झगड़ना, अपने दोस्ती की मिठास, माता-पिता का वात्सल्य, ये सभी जो उसे गांव में आसानी से मिलता था। लेकिन यँहा शहरो में इन ऊँची इमारतों के बिच जाने कँहा खो जाता है। शहरो में रहकर पैसा तो कमाया जा सकता है लेकिन अपनी आज़ादी एक कैद बनकर रह जाती है। ये एक ऐसी कैद है जहां आना तो आसान है लेकिन बाहर निकलना बहुत मुश्किल।
इसके लिए दो शब्द कहे तो भी समझ आता है :
"बहुत आते है लोग अपनी मिट्टी को छोड़कर, अपनी मिट्टी का मान बढ़ाने के लिए, लेकिन कुछ ही सफल हो पाते है।"
दीपक शर्मा