गिरह
रिश्तों की गिरह बस खोलती हूंएक यही बस आखिरी है सोचती हूंउलझे हुए धागों को समेटती,सुलझाती हूंथक जाते है हाथऔर डूब ता है मनअब सुलझा,बस अब सुलझासोच खुश हो जाती हूंबस यही एक ......../.गिरह दर गिरह दर गिरहजिंदगी की सॉंझ ढलने लगीसांस भी घटने लगीपर गिरह फसने लगीकितनी गिरहें बाकी हैये एक आखिरी हैबस यही सोचत