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गिरह

15 सितम्बर 2016

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रिश्तों की गिरह बस खोलती हूं एक यही बस आखिरी है सोचती हूं उलझे हुए धागों को समेटती,सुलझाती हूं थक जाते है हाथ और डूब ता है मन अब सुलझा,बस अब सुलझा सोच खुश हो जाती हूं बस यही एक ......../. गिरह दर गिरह दर गिरह जिंदगी की सॉंझ ढलने लगी सांस भी घटने लगी पर गिरह फसने लगी कितनी गिरहें बाकी है ये एक आखिरी है बस यही सोचती हूं रिश्तों सी गिरह बस खोलती हूं एक यही बस आखिरी है सोचती हूं सोचती हूं.... …...

शैलजा निगम की अन्य किताबें

रश्मि प्रभा

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रिश्ते अक्सर उलझते ही जाते हैं, कभी खोलने का सिरा नहीं मिलता, कभी सिर्फ गाँठ

2 मार्च 2017

शैलजा निगम

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सही कहा आपने

21 सितम्बर 2016

रश्मि प्रभा

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रह जाती है गिरह आखिर तक, ज़िन्दगी इसीमें गुजर जाती है !

21 सितम्बर 2016

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कविता-_----स्पंदन

14 सितम्बर 2016
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वो तेरा पहला स्पंदनछोटी सी एक धड़कनमैं हुलस गई ।देख तुझे आंचल में अपनेअमृत पान करा कर तुझकोमैं तृप्त हुई।सुन तेरी किलकारी आंगन में आंख मिचौलीऔर हंसी ठिठोलीमैं निखर गईसीमा पर जान गवाँ करतूने किया गौरवान्वितमैं धन्य हुईफिर आया आॉंचल मे मेरेबूढ़े कांपते हाथों सेतुझे उठा करमैं पुनः जी उठीसफल हुआ मेरा

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गिरह

15 सितम्बर 2016
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रिश्तों की गिरह बस खोलती हूंएक यही बस आखिरी है सोचती हूंउलझे हुए धागों को समेटती,सुलझाती हूंथक जाते है हाथऔर डूब ता है मनअब सुलझा,बस अब सुलझासोच खुश हो जाती हूंबस यही एक ......../.गिरह दर गिरह दर गिरहजिंदगी की सॉंझ ढलने लगीसांस भी घटने लगीपर गिरह फसने लगीकितनी गिरहें बाकी हैये एक आखिरी हैबस यही सोचत

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आरज़ू

21 सितम्बर 2016
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आरज़ू थी जिसकी वो ख़्वाब ना मिलाजिंदगी खूब हमने देखी,माहताब ना मिलादिल के पन्ने तो पलटे पर खुली ना किताबइतनी हिम्मत ही ना थीया फिर ज़ुर्रत ही ना कीलब सी लिए, कुछ की ना आवाज़़ .............

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