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शैलजा निगम की डायरी

शैलजा निगम

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shailja nigam ki dir

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पुस्तक के भाग

1

कविता-_----स्पंदन

14 सितम्बर 2016
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वो तेरा पहला स्पंदनछोटी सी एक धड़कनमैं हुलस गई ।देख तुझे आंचल में अपनेअमृत पान करा कर तुझकोमैं तृप्त हुई।सुन तेरी किलकारी आंगन में आंख मिचौलीऔर हंसी ठिठोलीमैं निखर गईसीमा पर जान गवाँ करतूने किया गौरवान्वितमैं धन्य हुईफिर आया आॉंचल मे मेरेबूढ़े कांपते हाथों सेतुझे उठा करमैं पुनः जी उठीसफल हुआ मेरा

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गिरह

15 सितम्बर 2016
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रिश्तों की गिरह बस खोलती हूंएक यही बस आखिरी है सोचती हूंउलझे हुए धागों को समेटती,सुलझाती हूंथक जाते है हाथऔर डूब ता है मनअब सुलझा,बस अब सुलझासोच खुश हो जाती हूंबस यही एक ......../.गिरह दर गिरह दर गिरहजिंदगी की सॉंझ ढलने लगीसांस भी घटने लगीपर गिरह फसने लगीकितनी गिरहें बाकी हैये एक आखिरी हैबस यही सोचत

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आरज़ू

21 सितम्बर 2016
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आरज़ू थी जिसकी वो ख़्वाब ना मिलाजिंदगी खूब हमने देखी,माहताब ना मिलादिल के पन्ने तो पलटे पर खुली ना किताबइतनी हिम्मत ही ना थीया फिर ज़ुर्रत ही ना कीलब सी लिए, कुछ की ना आवाज़़ .............

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