मन का पंछी
- कफ़स में कैद।मेरे आंगन में, कराहता रहा वो पंछी।हाँ,करता भी क्या?तोड़ डाले थे उसने पंख,उड़ने की चाहत में।सुन पाता हूँ साफ साफ,उसके कलरव में उठते दर्द को।अक्सर महसूस करता हूँ,उसके चीत्कार को अपने भीतर।एक पिंजरा और भी है,तुम्हारी यादों का।उसी के मानिंद कैद है एक पंछी यहां भी।तोड़ लिए हैं उड़ने की चाहत