हर रोज़ न्यूज़ चैनल्ज़ पर बहस का रंग मंच
सजता है। मंच पर आसीन होते हैं दो चार नेता प्रवक्ता, एक-आध एक्स्पर्ट
जो कई चैनल्ज़ पर अकसर दिखाई देते हैं। कुछ और जाने पहचाने चेहरे भी होते हैं।
वाद-विवाद और बहस की इस सारी प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाने और नियंत्रित करने के
लिए विराज़मान होता है एक ऐंकर, जो स्वयं भी कई बार अनियंत्रित हो कर चिल्लाने लग जाता है। कई
बार इस बहस में सब चिल्ला रहे होते है, कौन क्या कहना चाहता है, कोई सुनने को
तैयार नहीं होता, बस चिल्लाते जाते हैं। उधर न्यूज़ ऐंकर भी अपनी मन माफ़िक दिशा की
ओर बहस को ले जाने का प्रयास करता है। वह ऐंकर कम लगता है, किसी दल या
समुदाय का खैरख्वाह ज़्यादा लगता है। इस बहस को वह निष्कर्ष की ओर नहीं ले जाता, बल्कि वह
निष्कर्ष पहले ही तय कर चुका होता है और फ़िर अपने द्वारा तय किए गए निष्कर्ष के
चारों ओर बहस को घुमाता रहता है जैसे कोई तीरंदाज़ पहले तीर चलाता है और फिर जहाँ
वो तीर लगता है, उस बिंदू के चारों ओर दायरा खींच कर कहता है - देखा मैं कितना
बेहतरीन निशानची हूँ। इन सभी ऐंकरो की खूबी ये होती है कि उनकी दलील औए अपील से
लगता है कि वे जो कुछ कह रहे हैं, सब सच कह रहे हैं और सच के सिवाय कुछ नहीं। ये अलग बात है कि एक
ऐंकर के द्वारा कहा गया सच किसी दूसरे ऐंकर के द्वारा कहे गए सच के विपरीत होता
है। हिंदी वाला दावा करता है - देश जानना चाह्ता है और अंग्रेज़ी वाला कहता है-
नेशन वांट्स तो नो। लगता है जैसे उसने देश के 125 करोड़ से ज़्यादा लोगों की नब्ज़ की थाह
पा ली हो या उन सबके चेहरे एक दिन में ही पढ़ लिए हों।
इस सारी बहस में इन बहसबाज़ों को छोड़ कर देश के करोड़ों लोग कहाँ
होते हैं, वो दर्शक कहाँ
होता हैं, जिनके लिए ये
सारा रंग मंच तैयार किया जाता है? वह कौनसा चैनल देखे? जिस चैनल को भी देखता है बस ऐसा ही
मंजर देखता है। वह भी कुछ कहना चाहता है। पर उसकी आवाज़ कहाँ है? वह किससे और
कैसे कहें। मज़बूर हो कर बस वह देखता जाता है और ज़्यादा से ज़्यादा ये कर सकता है कि
उक्ता कर या तो टी वी बंद कर दे या कोई धारावाहिक देख ले।
अब बस! क्योंकि अब सोशल मीडिया है न।
एक ऐसा दौर आ गया है कि आम आदमी को भी आवाज़ मिल गयी है। उसे भी अपने मुद्दे, अपनी राय, अपनी समस्या, अपने दुख-दर्द
को आवाज़ देने का साधन मिल गया। जी हाँ - उसे सहारा मिल गया है सोशल मीडिया का जिसे
वह मनमाफ़िक इस्तेमाल कर सकता है। अब उसे न्यूज़ ऐंकर की ठसक और कुछ गिने-चुने
बहसबाज़ों पर ही निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। एक अनुमान के अनुसार 2016 में
भारत में लगभग 168 मिलियन लोग सोशल मिडिया का इस्तेमाल करते थे, जो 2017 के
अंत तक बढ़ कर 196 मिलियन हो जाएंगे। 2021 के अंत तक देश में 319 मिलियन लोग सोशल
मेडिया का इस्तेमाल कर रहे होंगे। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि किस तेज़ी से
सोशल मीडिया का दायरा बढ़ रहा है। आपकी आसानी और जानकारी के लिए बता दूँ कि एक
मिलियन 10 लाख के बराबर
होता है।
सोशल मीडिया की खूबसूरती ये है कि आप
अपनी मर्ज़ी के मालिक बन जाते हैं। आपको किसी खास प्राइम टाइम की ज़रुरत नहीं। जब मन
चाहा, जब फुर्सत मिले, अपने मन पसंद
मुद्दे को कभी भी पोस्ट कर सकते हैं क्योकि अब आपके पास फ़ेसबुक है, व्टसऐप है, ट्विटर है और
दूसरी ऐप्स हैं। आपको किसी की बात सही नहीं लगी, तो अपनी राय कमैंट कर सकते हैं, कोई बात पसंद
आयी तो लाइक बटन तो दबा भी सकते हैं। अगर बात कहीं ज़्यादा ही नगँवारा गुज़रे, तो कर दो अनफ़ैंड, कौन रोकता है।
टी वी चैनल थोड़ी है कि उनकी सुनते रहो।
आप अपनी कोई उपलब्धि हासिल करते हैं तो
अख़बार वाले या न्यूज़ चैनल वाले उसे छापने में आना कानी कर सकते हैं क्योंकि उन्हें
तो किसी छोटे-मोटे नेता का फोटो चिपकाना होता है या किसी चमचे नेता की खबर चलानी
होती है। इसके लिए भी अब ज़्यादा परेशानी की ज़रूरत नहीं - सोशल मीडिया है न। फ़ेसबुक
पर इसका फोटो, वीडियो अपलोड करो और बात बन जाती है। उस पर जो संदेश, कमैंटस या
लाइक्स आते है, उससे जो मसरर्त, चैन या तसल्ली मिलती है, वो और कहाँ। हो
सकता है इस सबमें बहुत कुछ बनावटी हो, पर कम से कम आपके मन की बात को तो आवाज़
का आयाम मिल ही जाता है। आप सेलेब्रिटी भी बन जाते हैं। आपकी आवाज़ को देश में ही
नहीं विदेशों में भी सुना जा सकता है। इसे ही तो अभिव्यक्ति की आज़ादी कहते हैं।
मैं ये तो नहीं कहता है कि न्यूज़
चैनल्ज़ की कोई महता नहीं। बस इतना कह रहा हूँ कि ये आपको कुछ कहने नहीं देते। ये
बस आपको सुनाते हैं। अगर आपको भी कुछ कहना है, तो अब सोशल मीडिया है न। कह डालो।
इसलिए मैं भी न्यूज़ चैनल्ज़ बहुत कम देखता हूँ क्योंकि सोशल मीडिया है न। क्या कहा, आप भी मेरी बात
पर कुछ बात कहना चाहते हैं, तो सोशल मीडिया है न। टाइम लाइन पर आओ न। सोशल मीडिया के कोई
दूसरे नुकसान हो सकते हैं, पर वे तो वि ज्ञान के इस्तेमाल में भी हैं और हर चीज़ के इस्तेमाल
में रहते हैं। क्या मनुष्य ने विज्ञान को छोड़ दिया या उसे विज्ञान को छोड़ देना
चाहिए? अभिव्यक्ति की
आज़ादी क्या होती है, ये अहसास सोशल मीडिया निसंदेह दिलाता है। सोशल मीडिया है न...................................