तेरे चरणों में शीश झुकाता हूँ माँ।
पूजा की थाल लेकर खड़े यहाँ
उम्मीदों को लेकर आया यहाँ
माँ ही है जो लगता है पहला मन्दिर यहाँ
जन्म से हमें उँगलियों को पकड़
दुनिया घुमाती है माँ
आरती भाव से करता हूँ तेरी
गूँज रहा है पावन दरबार तेरा।
संस्कृति की चादर ओढ़ाकर
हमें जीवन में चलना सिखलाती है माँ।
जब हमें आँचल से लगाती है माँ,
मानो सब है यही
फिर किसी और चौखट पर जाने से क्या?
डगमगाते हैं जब भी
अपने बच्चों को सँभालती है
तेरे चरणों में शीश झुकाता हूँ माँ।
अक्षय भंडारी, राजगढ़(धार) मप्र