वर्षा जब रिमझिम करती
धरती पर आती है,
हर्ष हास्य उम्मीदों की
बूंदें बरसाती हैं ।
सहसा थिरक उठते पत्ते
बीजें लेती हैं अंगड़ाई,
मुरझाए पेड़ों पौधों पर
आ जाती जैसे तरुगाई।
खग उठते चहचहा
कुचालें मृग भरता है,
करते नृत्य मयूर
उभयचर टर्राता है।
विहस उठते ताल तलैया
रंभाती है बछिया गैया,
कस लेता है कमर किसान
बैल खड़ा कर लेता कान ।
खेतों में होती हरियाली
कहीं नहीं दिखता है खाली,
घास की मखमली चादर
बिछ जाती पूरी वसुधा पर ।
भीग रहे हैं देखो तन मन
हर दिन मोद मनाता कानन,
दृश्य देख नयनाभिराम
होते प्रफुल्ल मन और प्राण ।