वो भी बचपन के क्या दिन थे
जब हम घूमते थे और खुस होते थे
तब हम रोते थे फिर भी चुप होते थे
ना वादे होते थे ना शिकवे होते थे
बस थोड़ा लड़ते थे फिर मिलते थे
वो भी क्या बचपन के दिन थे
तब सब कुछ अच्छा लगता था
चाहे जो हो सब सच्चा लगता था
गांव की गालिया नानी के यहाँ अच्छा लगता था
ना झूठ था ना फरेब था
एक दूसरे की रोटियों से पेट भरते थे
वो भी क्या बचपन के दिन थे
बड़ा तो हो गया पर प्यार तो रहा नही
सब कुछ है वो खुशियों का अम्बर रहा नही
पास हो के भी दूरिया है
पूछो तो कहते है मजबूरियां है।
पास बैठे है मोबाइल से हैल्लो लिखते है
जो बचपन में एक साथ बैठ कर चाय पीते थे
वो भी क्या बचपन के दिन थे
अब बस फरेब रह गया है दुनिया में
बस ऐब रह गया है दुनिया में
दुनिया की असलियत पता चल गयी है
लोगो की सख्सियत बदल गयी है
बचपन में जो प्यार के दिन थे।
जवानी में वो सब यादो के दिन थे
इसी लिए तो अब कहता हु
वो भी क्या बचपन के दिन थे
( सौरभ शुक्ला )