चाँद बुलाये री ।
अरमान बुलाये री।
मन इस तन का
अमन गगन का
चाँद और चांदनी का
एहसान बुलाये री।
चाँद...
तुम थे कल 'पर' पर
आकर आँगन घर
स्नेहल बरखा, बरसा कर
मुक्त मगन मन हर्षाकर, हो कहाँ
तुम्हें घर की सोपान बुलाये री।
चाँद...
रहते हो पास मन के
बन कर एहसास जीवन के
मन से मन का तार, जो
हो कर जार-जार व मेरी
अधरों का भार बुलाये री
चाँद.....
तुम जो होते हो यहाँ
जी भर जीते हैं
जाने स्नेह- सरोवर में
खुद के, कितने ही गोते हैं, सुन
तुम्हें सासों की आवाज बुलाये री
चाँद...
करूँ उन आँखों में गुजारा
चाहूँ बस मैं प्यार तुम्हारा
रहूँ चरणों में, ना फिरूँ मारा-मारा
कब से कितना, बस तुम्हें गुहारा, मेरी हर
क्रन्दन करती गुहार बुलाये री
चाँद...
कौन चित्रकार है इस
उत्सुक,प्रेमातुर छवि का
कौन है जननी इस
उन्मत, उन्मुक्त कवी का,कवि की
वंदन करती गीत बुलाये री
चाँद ...
ऐ स्नेह-लता में कसने वाली
रूपों की लीला रचने वाली
आ ,रच फिर वही प्रेम धुन
हो मुग्ध मगन मन जिसको सुन,आ
उसी प्रीत की संगीत बुलाये री
चाँद...
जानूँ , तू क्यूँ है दूर
है जो पनाहों में मजबूर
आना ना , मत आना
आकर, मेरा भरमाना, औऱ
मेरी बेबस प्रीत बुलाये री
चाँद बुलाये री।
Mukesh Bhagat