एक महात्मा जी ने एक निर्धन व्यक्ति की सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक पारस पत्थर दिया और बोले -" इससे चाहे जितना लोहा, सोना बना लेना . मैं सप्ताह भर बाद लौट कर वापस ले लूंगा . " वह व्यक्ति बहुत खुस हुआ .उसने बाजार जाकर लोहे का भाव पूछा तो पता चला की लोहा सौ रुपये कुंतल बिक रहा है . उस व्यक्ति ने पूछा की क्या भविस्य में लोहा सस्ता होने का उम्मीद है तो दुकानदार ने उत्तर हा में दिया . यह सुनकर वह व्यक्ति यह सोचकर घर लौट आया की सोना सस्ता होने पर खरीदुंगा . दो दिन छोड़कर वह फिर बाजार गया , लेकिन लोहा अभी भी उस भाव पर बिक रहा था .वह फिर घर लौट आ्य्ा्. सप्तह पूरा होने से पहले उसने यह भाग दौड़ द्ो्-तिन् बार की , परन्तु बिना लोहा ख़रीदे ख़रीदे ही समय गुजर दिया .
महात्मा जी लौटे तो उस व्यक्ति की आर्थिक यथावत देखकर उसे बड़ा आस्चर्य हुआ . पुछने पर उनहे सारा विवरण ज्ञात हुआ तो बोले - " अरे मुर्ख लोहा चाहे जितना महँगा होता , परन्तु सोने से तो कई गुना सस्ता होता . यदि त्ू् प्रतिदिन कुंतल भर लोहा भी सोने में बदल रहा होता तो आज सात कुंतल सोने का मालिक होता , परन्तु अपने अविवेक् के कारन प्राप्त अवसर को खली गवा दिया . " सच यही है की जो अवसर का सदुपयोग करते है, वे ही जीवन में सफल होते हैं.