मैं अभिलाषा ,अनंत अभिलाषाओं को अंतरतम में समाहित किए उमड़ते भावसागर को शब्दों के माध्यमसे जीवंत करने का प्रयास कर रही हूं।मन,आत्माबुद्धि, विचार का बहता निर्झर है मेरा यह पेज।
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मैं जीना चाहूं बचपन अपना,पर कैसे उसको फिर जी पाऊं!मैं उड़ना चाहूं ऊंचे आकाश,पर कैसे उड़ान मैं भर पाऊं!मैं चाहूं दिल से हंसना,पर जख्म न दिल के छिपा पाऊं।मैं चाहूं सबको खुश रखना,पर खुद को खुश न रख पाऊं।न जाने कैसी प्यास है जीवन में,कोशिश करके भी न बुझा पाऊं।इस चक्रव्यूह से जीवन में,मैं उलझी और उलझती ह
निज भाषा उन्नति अहे,सब उन्नति को मूल महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी भाषा को सब प्रकार की उन्नति का मूल कारक बताया था।अपनीभाषा अर्थात जिस जगह हम रहते हैं ,उस विस्तृत भूभागमें बोली जाने वाली भाषा।इस प्रकार हिंदी हमारी मातृ-भाषा है,क्योंकि वह विस्तृत भू-भाग में
<p><br></p> <p><br></p> <p>*शापयुक्त उसका जीवन*</p> <p><br></p> <p>तेजपुंज सा लाल गोद में</p> <p>कर