हो गया वो ही बवंडर द्वार पर आकर खड़ा ,
मलकपुर से था चला जो आ गया बिसाहड़ा .
डर तो था मन में की इक दिन आएगा शायद ज़रूर ,
देखता है क्योंकि वो बस आदमी कोई छड़ा .
मै अकेला कब तलक छिपता फिरूंगा लाहिजाब ,
ढूंढ मुझको ही रहा है गाँव का हर इक धड़ा .
क्यों कहा , किसने कहा , क्या कहा और क्या सुना ,
हाँ मगर सुनकर उसे कोई किसी से था लड़ा .
फुसफुसा रहे थे वो सब आप में यूँ आज क्यों ,
देखकर उस जिस्म को जो था मोहल्ले में पड़ा .
वो मलकपुर का मवेशी कैसे आया फिर निकल ,
हमनें तो देखा वहाँ उसको ज़मी में था गड़ा .
रो-रो के अम्मा कह रहीं थीं ये मेरा अखलाक है ,
पर मसनिया ले के भाला नरबलि पर था अड़ा .
और जो होना था , होकर ही रहा आंसू बहे ,
मलकपुर रोया था तब अब रो रहा बिसाहड़ा .