सिनेमा और समाज ये दोनों एक दुसरे के अभिन्न अंग हैं ,और एक दुसरे के पूरक भी बशर्ते सिनेमा में तत्कालीन समाज की झलक हो ,अगर ऐसा सिनेमा बनता है तो फिर देर कान्हा लगेगी समाज के सड़े हुए कचरे को निकलने में
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राजस्थानी सिनेमा , इस शब्द को सुनकर ही आपको ऐसा लगेगा की मैं क्या फालतू बात कर रहा हु , कयूकि आप सभी के हिसाब से तो सिनेमा सिर्फ या तो अमिताभ बच्चन वाला है या फिर आप शकीरा के ठुमको को सिनेमा मानोगे , लेकिन हाल ही पिछले दो तीन साल में जो क्षेत्रीय सिनेमा नाम का एक शब्द उभर कर आया है उसने न केवल शाकि