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देहाती कोहरा

24 अक्टूबर 2024

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सुबह हुई,पसारा था कोहरे का

मानो वीरान सा नजारा देहात का

ओझल थे मानो सब घर 

ओझल थे मानो सब नर


था परिवेश में शीत महा 

कांप उठी थी जन की रुह जहां

थे घरों के अंदर उनके तन

थे घरों के अंदर उनके मन


बाहर आये तो कोहरा बरसें 

अंदर से वे धूप को तरसे 

था लीन अभी बालारूण 

था धवल सा नजारा दारूण 


लगे गिर पड़े अभी जमीं पर कोहरा 

सचमुच हो जाए सब नदारद 

दरकार ना मुझे अब तेरी 

सचमुच हो जाए अब नदारद 


मुनासिब है तू परिताप का 

रखूं मैं केद तूझे जेल की सलाखों में 

ले जाऊं तूझे अब मैं हिरासत में 

विलाप करेगा तू,जब बंधेंगे हाथ तेरे कलापों में 


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