shabd-logo

फ़रिश्ता

14 नवम्बर 2015

232 बार देखा गया 232
||| फ़रिश्ता ||| बहुत साल पहले की ये बात है. मुझे कुछ काम से मुंबई से सूरत जाना था. मैं मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर ट्रेन का इन्तजार कर रहा था. सुबह के करीब ६ बजे थे. मैं स्टेशन में मौजूद बुक्स शॉप के खुलने का इन्तजार कर रहा था ताकि सफ़र के लिए कुछ किताबे और पेपर खरीद लूं. अचानक एक छोटा सा बच्चा जो करीब १० साल का होंगा; अपनी बहन जो कि करीब ८ साल की होंगी; के साथ मेरे पास आया और मुझसे कुछ पैसे मांगे. मैंने उनकी ओर गहरी नज़र से देखा और कहा, ‘मैं भीख नहीं दूंगा, हाँ, अगर तुम मेरा सूटकेस उठाकर मेरे कोच तक ले जा सको तो, मैं तुम्हे १० रुपये दूंगा.’ वो लड़का मेरा सूटकेस उठाकर ट्रेन के मेरे स्लीपर कोच तक ले आया. मैंने उसे १० रुपये दिए. वो दोनों बच्चे बहुत खुश हो गए और जब वो जाने लगे तो मैंने उससे पुछा, ‘तुम भीख क्यों मांगते हो, जबकि तुम दोनों कोई काम कर सकते हो.’ लड़के ने बड़े उदास स्वर में कहा,‘साहेब, यहाँ कोई हमें काम नहीं देता है. क्या करे. हम दोनों का कोई नहीं है.’ मैंने कुछ देर सोचा और उससे कहा, ‘तुम स्टेशन पर जूते पॉलिश करने का काम शुरू कर सकते हो !’ उसने कहा, ‘साहेब ये तो मैं कर सकता हूँ, पर मेरे पास सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं है.” मैंने उससे पुछा, ‘कितने पैसे लगेंगे ?’ उसने कहा, ‘मुझे कुछ पक्का मालूम नहीं साहेब.’ मैंने उसे ३०० रुपये दिए और उससे कहा कि इस रुपयों से कुछ सामान खरीद लो और अपना काम शुरू करो. किसी से मांगने की जरुरत नहीं पड़ेंगी और हो सके तो इस बच्ची को सरकारी स्कूल में भेजो. उन दोनों ने मुझे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. मेरी आँखे भीग गयी थी. दोनों बच्चे भी करीब करीब रो ही रहे थे. ट्रेन चल पड़ी और साथ ही वो दोनों भी उस स्टेशन पर यादो के रूप में छूट गए. समय बीतता गया. कई साल गुजर गए. उस घटना के कुछ बरस के बाद फिर किसी काम से मेरा सूरत जाना हुआ. मैं फिर उसी मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर खड़ा था. अचानक ही वो बच्चो वाली घटना याद आ गयी, उस बात को करीब ५ साल गुजर चुके थे. पता नहीं वो दोनों कहाँ थे. मैंने मन ही मन कहा, ‘खुदा उनको सलामत रखे.’ इतने में एक युवक मेरे पास आया और जमीन पर बैठ कर मेरे जूते को पॉलिश करने लगा; मैं सकपका गया, मैंने कहा, ‘अरे, अरे ये क्या कर रहे हो, मुझे जूते पॉलिश नहीं कराने है. मेरे जूते ठीक है,’ उसने कहा, ‘सर आप जूते पॉलिश करा लो, मैं अच्छे से पॉलिश कर दूंगा और क्रीम भी लगाकर चमका दूंगा.’ पता नहीं उसकी बातो में क्या था, मैंने उसे जूते दे दिए, उसने बड़ी मेहनत से पॉलिश कर दिया और उसे एक कपडे से चमकाने लगा. उसी वक़्त एक लड़की उसके पास भागती हुई आई और उस लड़के ने उसके कान में कुछ कहा, लड़की ने मुझे देखा और अपना दुप्पटा उस लड़के को दे दिया. उस लड़के ने उस दुप्पटे से मेरा जूता चमका दिया. ये देखकर मुझे कुछ अजीब सा लग रहा था. जब जूते पॉलिश हो गए तो उसने उन्हें मेरे पैरो में डाला और फीते बाँध दिए. मैंने अपने जेब से कुछ सोचते हुए २० रुपये का नोट निकाला और उस युवक को दिया. वो लड़का उठकर खड़ा हुआ और कहने लगा, ‘सर, आप से कभी पैसे नहीं लूँगा, आपको कुछ याद है, कुछ साल पहले आपने मुझे ३०० रूपए दिए थे और कहा था कि भीख मत मांगो और कुछ काम करो.’ मुझे वो लड़का और उसकी बहन याद आ गये. अजीब इत्तेफ़ाक था, अभी कुछ देर पहले ही मैं उनके बारे में सोच रहा था. वो दोनों अब बड़े हो चुके थे और मुझे उन्हें इस तरह काम करते हुए देखकर अच्छा लगा. उसने आगे कहा, ‘मैं वही लड़का हूँ साहेब और आपके दिए हुए रुपयों से मैंने जूते पॉलिश करने का सामान ख़रीदा और काम शुरू किया और अब मैं खुदा की मेहरबानी से थोडा बहुत कमा लेता हूँ. मैं अब नाईट स्कूल में पढता हूँ और मेरी बहन यहीं पास के सरकारी स्कूल में पढने जाती है. यहीं पर एक छोटी सी खोली है, जहाँ हम रहते है.’ उस लड़की ने मेरे पैर छु लिए और कहा, ‘साहेब, अल्लाह आपको सारे जहां की ख़ुशी दे और आपकी रोज़ी में बरकत दे. खुदा करे कि आप जैसे इन्सान और हो जाए तो इस दुनिया में कोई भीख नहीं मांगेगा और इज्जत से जियेंगा’ मेरा मन भर आया और मैंने उनसे उनका नाम पुछा, उन्होंने बताया - लड़के का नाम जमाल था और उसकी बहन का नाम आयशा था. ट्रेन ने चलने की सीटी बजा दी थी, मैंने उन्हें खूब आशीर्वाद दिया. मैं ट्रेन की ओर चलने लगा, लड़के ने मेरा सूटकेस फिर से उठा लिया और उसे मेरी कोच तक ले आया. मैं अन्दर जाने लगा, उन दोनों को देखा. उन दोनों ने मुझे हाथ जोड़ दिए, दोनों की आँखों में आंसू थे. लड़के ने पुछा, ‘साहेब आपका नाम क्या है.’ मैं कुछ बोलता, इसके पहले ही उसकी बहन ने जवाब दिया, ‘अरे जमाल, इनका नाम फ़रिश्ता है.’ मेरी आँखे भीग गयी और मेरा गला रुंध गया. ट्रेन चल पड़ी. मैं उन्हें नहीं बता सका कि मेरा नाम क्या है या मैं कौन हूँ और मेरे लिए वो हिन्दू या मुस्लिम नहीं बल्कि इंसान है. मैं उन्हें नहीं बता सका कि मेरे बच्चे उन्ही के उम्र के है और मुझे हर बच्चो में अपने बच्चे ही दिखायी देते है. मैंने उन्हें नहीं बता सका कि कभी न कभी, हर किसी को, कोई न कोई फ़रिश्ता जरुर मिलता है और मुझे भी कोई फ़रिश्ता कभी मिला था और इस फानी दुनिया की लाख बुराईयों के बीच में ये एक खुदाई अच्छाई मौजूद है, जिसके चलते कोई न कोई, कभी न कभी, किसी न किसी का भला जरुर करता है. मैं उन्हें नहीं बता सका कि उनकी इस मेहनत भरी ज़िन्दगी को देखकर मुझे उन पर बहुत फ़क्र है और मैं कितना खुश हूँ. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े होकर मैं बहुत दूर तक उन्हें देखते हुए हाथ हिलाते रहा ! आज भी कभी कभी उन दोनों के बारे में सोचता हूँ तो गला भर जाता है. भगवान उन दोनों को हमेशा खुश रखे !

विजय कुमार सप्पत्ति की अन्य किताबें

16 नवम्बर 2015

अर्चना गंगवार

अर्चना गंगवार

bahut achca kiya sajha karke ........bure logo se itna bura anubhav milta hai ki aksar hum chah karke bhi logo ki bhalai nahi kar paate .....................isliye duniya mein aaj sab log bhalai karne se darte hai ..........lakin hum logo ko bhi sabo bura na samjh kar achche bure ki pahchan kar yatha sambhav madad karni chahiye

16 नवम्बर 2015

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए