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हौसलों की उड़ान

29 मई 2015

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देख पंछी परिंदों को मेरे मन जागी इच्छा मैं भी इनकी तरह उडूँ उन्मुक्त आकाश में लेकिन इनके तो पंख हैं मैं पंख कहाँ से लाऊँ मैं हो गयी परेशान अब कैसे भरुँ उड़ान दिल ने मुझे समझाया धैर्य दिला के कहा घबराओ मत ऐसे मैं उपाय बताता हूँ पंख नहीं तो क्या हुआ हौंसलों की उड़ान भरेंगे सारा जहान घुमेंगे नाप लेंगे सारी धरती और सारा आकाश भी ऊपर नभ में हीं एक सुंदर और प्यारा आशियाँ बनायेंगे चाँद-तारों से सजायेंगे राहों में बिछड़े राही को प्यार से उठाकर गले से लगाकर उसकी मंजिल के पथ में रोशनी जलायेंगे उसे उड़ाना सिखायेंगे वह भी छूयेगा आसमान हौंसलों की पर लगाके भरेगा उड़ान – दीपिका कुमारी दीप्ति

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शब्दनगरी संगठन

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दीपिका जी, आपकी यह रचना तीन बार पोस्ट हो गयी है...अतः इसे आप स्वयं सम्पादित कर लें....धन्यवाद !

30 मई 2015

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अति सुन्दर रचना....बधाई !

30 मई 2015

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मन है अपना

28 मई 2015
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सौभाग्य से मिला है जीवन करो न इसे व्यर्थ निलाम ऊँचाईयों पर चढ़ने के लिए बना लो अपना भी मकाम मन नहीं करता जी नहीं लगता ऐसी बातें कभी न करना दुनिया की सब चीज पराई लेकिन ये हमारा मन है अपना मेरा मन है मेरा नहीं तो किसकी कहना मानेगा छोड़ दें यदि लगाम इसकी मिट्टी में तुरंत मिला देगा मन लगाकर

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हौसलों की उड़ान

29 मई 2015
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देख पंछी परिंदों को मेरे मन जागी इच्छा मैं भी इनकी तरह उडूँ उन्मुक्त आकाश में लेकिन इनके तो पंख हैं मैं पंख कहाँ से लाऊँ मैं हो गयी परेशान अब कैसे भरुँ उड़ान दिल ने मुझे समझाया धैर्य दिला के कहा घबराओ मत ऐसे मैं उपाय बताता हूँ पंख नहीं तो क्या हुआ हौंसलों की उड़ान भरेंगे सारा जहान घुमेंग

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बेरहम प्रकृति

30 मई 2015
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ओ बेरहम प्रकृति बोलो क्यों हो इतना नाराज किस बात का गुस्सा है जो उगल रहे हो आग सुनामी तूफान भूकंप से अभी भरा नहीं है मन बरसा रहे हो आग ऐसे साथ में ये गर्म पवन तड़प तड़प के मर रहे पशु पक्षी और मानव सभी हैं बेचैन यहाँ चारो ओर फैला तांडव दूभर हो गया है अब बाहर जाना एक कदम सहन नहीं होता ये त

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बेरहम प्रकृति

30 मई 2015
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ओ बेरहम प्रकृति बोलो क्यों हो इतना नाराज किस बात का गुस्सा है जो उगल रहे हो आग सुनामी तूफान भूकंप से अभी भरा नहीं है मन बरसा रहे हो आग ऐसे साथ में ये गर्म पवन तड़प तड़प के मर रहे पशु पक्षी और मानव सभी हैं बेचैन यहाँ चारो ओर फैला तांडव दूभर हो गया है अब बाहर जाना एक कदम सहन नहीं होता ये त

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मित्र वृक्ष

6 जून 2015
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ओ मेरे हरे मित्र वृक्ष क्यों तुम हो उदास लगता है फिर किसी ने तुम्हें दर्द दिया है आज खुद धूप में रहकर सबको देते हो छाँव आवास फूलों की खुशबू से रौनक करते जमीं आकाश खट्टे-मीठे फल देते हो तुम ही देते हो अनाज पक्षियों को दाना देते पशुओं को चारा-घास तेरी सूखी लकड़ी से माँ खाना भी पकाती है टे

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मित्र वृक्ष

6 जून 2015
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ओ मेरे हरे मित्र वृक्ष क्यों तुम हो उदास लगता है फिर किसी ने तुम्हें दर्द दिया है आज खुद धूप में रहकर सबको देते हो छाँव आवास फूलों की खुशबू से रौनक करते जमीं आकाश खट्टे-मीठे फल देते हो तुम ही देते हो अनाज पक्षियों को दाना देते पशुओं को चारा-घास तेरी सूखी लकड़ी से माँ खाना भी पकाती है टे

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