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किचन मिस्ट्री’ का किस्सा

7 मई 2022

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  कल्पना कीजिए आप ऑफिस में टेबल पर रखी फाइलों और कागजों में डूबे हों और सामने की फाइल हटाते ही मेज पर लगे शीशे से यकायक कोई चेहरा झांकने लगे तो? या फिर रसोई की ग्रेनाइट-स्लैब पर अचानक ही कोई चेहरा उभरकर आपकी श्रीमती जी को घूरने लगे तो? जाहिर है पहली बार आप और आपकी पत्नी बेशक परेशान न हों। ये भी संभव है आप इसे आंखों का भ्रम समझ आया-गया कर दें. पर अगर कोई कहे कि ये तो किसी की आत्मा है या हो सकती है तो आप क्या कहेंगे? ऐसी ही एक घटना स्पेन को श्रीमती मारिया परेरा के साथ 1971 में उनकी रसोई में ही घटी थी। उस चेहरे को देखकर श्रीमती परेरा थोड़ी अचंभित तो हई, पर आंख का भ्रम समझकर फिर से अपने काम में लग गई। थोडी देर बाद उन्होंने नजर घुमाई तो भी वो चेहरा जस-का-तस वहां बना हुआ था।  

इस पर श्रीमती परेरा ने सोचा, शायद स्लैब पर जमी गर्द पर पड़े निशान से वहां चेहरे जैसा कुछ बन गया हो। लिहाजा उन्होंने उसे झाड़-पोंछ और रगड़कर मिटाना चाहा, लेकिन चेहरा अपनी जगह अमिट रहा। वह एक महिला का चेहरा था और उस पत्थर में एकदम साफ दिख रहा था। अब तो श्रीमती परेरा परेशान हो गईं। लोगों की सलाह पर उन्होंने वहां सीमेंट का नया प्लास्टर तक करवा डाला, पर वो चेहरा उस प्लास्टर में से भी झांकने लगा। बल्कि अब तो रसोई में दीवारों और फर्श से भी चेहरे झांकने लगे। खास बात ये थी कि कभी ये चेहरे गायब हो जाते, लेकिन थोड़ी देर बाद फिर दिखने लगते। उनकी भाव-भंगिमाएं भी बदली हई होने लगी। अब तो श्रीमती परेरा की रसोई के चेहरों की खबर दर-दर तक फैल गई। शहर भर के लोग भी उनकी रसोई में झांकते चेहरों की एक झलक पाने के लिए कतार बांधे खड़े रहने लगे। उधर श्रीमती परेरा को न जाने क्या सझी कि उन्होंने हर ऐसे मेहमान से फीस वसूलनी शुरू कर दी। जब ये खबर नगर अधिकारियों तक पहुंची तो उन्होंने हस्तक्षेप करके देखने-दिखाने का ये सिलसिला बंद करवाया। 

संयोगवश उन्हीं दिनों जर्मनी की फ्री-बर्ग यूनिवर्सिटी के नामी परामनोवैज्ञानिक डॉ. हैंस बैंडर उस शहर में आए हुए थे। श्रीमती परेरा की किचन-मिस्ट्री का किस्सा उन तक भी पहुंच चुका था। अत: उन्होंने स्पेन के ही एक परामनोवैज्ञानिक डॉ. जर्मन डे अर्गुमोसा के साथ मिलकर इस मामले की छानबीन शुरू कर दी। अंततः बैंडर और अर्गुमोसा की टीम ने वहां पर किसी आत्मा के होने की प्रबल संभावना जताई। इस बीच श्रीमती परेरा ने दूसरी नई रसोई बनवा ली थी, पर कुछ दिनों बाद ये अजूबा वहां भी होने लगा। डॉ. अर्गुमोसा ने स्वयं 9 अप्रैल, 1974 को एक ऐसे चेहरे को न सिर्फ देखा, बल्कि उसकी तस्वीर भी खींची। आंखों देखी  और दस्तावेजी सबूतों के चलते इस घटना को दृष्टिभ्रम तो नहीं कहा जा सकता। ऐसा क्यों होता था, इसका जवाब आज तक नहीं मिल सका है। लेकिन श्रीमती परेरा की उस रसोई का फर्श खोदने पर वहां दफन कुछ पुरानी हड्डियां जरूर मिलीं। यह भी सुनने में आया कि जिस जमीन पर वो घर बना था, कभी वहां एक कब्रगाह था। 

1860 और 1870 के दशकों की बात है। अमेरिका में मजदूर आंदोलन अपने चरम पर था। यह आंदोलन पेन्सिल्वानिया की कोयला खदानों की दयनीय और भयावह कार्यस्थितियों को लेकर शुरू किया गया था। इस संघर्ष को अधिक प्रभावी रूप से चलाने के लिए कामगारों ने ‘मौली भाग्वायर्स’ नाम का एक गुप्त संगठन स्थापित किया। पर स्थिति ऐसी बिगड़ी कि आंदोलन दंगों में बदल गया। कामगारों और यूनियन नेताओं की धरपकड़ शुरू हुई और लगभग डेढ़ सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया। हड़ताल से निबटने के लिए मालिकों ने एक गुप्तचर संस्था ‘पिंकरटन डिटेक्टिव एजेंसी’ की मदद ली, जिसके एजेंटों ने मौली भाग्वायर्स’ में अपनी घुसपैठ बना ली। मजदूरों को भड़काने वालों के विरुद्ध प्रमाण इकट्ठे किए गए और मुकदमें चलाए गए। नतीजतन करीब दर्जन भर लोगों को मौत की सजा सुनाई गई।

1877 में ‘येलो जैक’ नाम के मशहूर डोनाह्य को ‘लहाई कोल एंड नेविगेशन कंपनी के फोरमैन की हत्या के आरोप में मुख्य दोषी पाया गया और फांसी दे दी गई। उसके तीन अन्य साथियों को भी विभिन्न हत्याओं के आरोपों में फांसी की सजा सुनाई गई। इनमें से दो तो चुपचाप फांसी पर चढ़ गए, लेकिन कोठरी नम्बर 17 में बंद उनका तीसरा साथी, एलेक्जेंडर कैंपबेल, अंत तक यही चिल्लाता रहा कि वह बेकसूर है। जब उसे कोठरी से खींचकर फांसी के तख्ते पर ले जाने लगे, तो उसने फर्श की मिट्टी से कोठरी की दीवार पर अपने हाथ की छाप बना दी और चिल्ला-चिल्लाकर कहा, ‘मेरा यह हाथ मेरी बेगुनाही के सबूत के तौर पर सदा-सदा के लिए यहां बना रहेगा।’ 

फांसी के तख्ते पर पहुंचने तक वो बार-बार यही कहता रहा और फांसी पर लटकाए जाने के लगभग 15 मिनट बाद ही उसके प्राण निकले। कैंपबेल तो मर गया, पर अपने हाथ की छाप वहां छोड गया। कैंपबेल का यह हाथ अमेरिका में अन्याय का एक ज्वलंत सबूत बन गया। कई लोगों ने इसे तरह-तरह से मिटाने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुए। आखिरी बार इसे मिटाने की कोशिश की गई 1978 में। उस पर पेंट पोता गया लेकिन नया पेंट भी उस हाथ की छाप को छिपाने-मिटाने में नाकामयाब रहा। उसके बाद से ये कोठरी हमेशा के लिए बंद कर दी गई, पर उसकी दीवार पर कैंपबेल का हाथ आज तक बना हुआ है।  

कभी-कभी बड़े शौक से खरीदी गई चीज भी आदमी को माफिक नहीं पड़ती। वह चीज खरीदते ही व्यक्ति के लिए मुसीबतों का दौर शुरू हो जाता है और कभी इतना भारी पड़ता है कि उसे अपनी जान तक गंवानी पड़ जाती है। अभिनय-क्षेत्र में हॉलीवुड की उभरती नौजवान प्रतिभा जेम्स डीन के मामले में भी ऐसा ही हुआ। जेम्स अपनी किशोर वय में ही अभिनय में अपनी विलक्षण प्रतिभा और सुनहरे भविष्य के संकेत देने लगा था, लेकिन वो सुनहरा भविष्य आने से पहले ही उसकी मौत हो गई। उसकी मौत का कारण बनी उसकी प्रिय कार पोर्शे। घटना 1955 की है।

अभिनय क्षेत्र में जेम्स एक के बाद एक फिल्मों में अपनी श्रेष्ठता के झंडे गाड़ रहा था। हॉलीवुड समेत उसके प्रशंसक भी उसे भविष्य के ‘नंबर-वन’ अभिनेता के रूप में देखने लगे थे, अपनी कारप्रियता के शौक शौक के चलते उसने एक सैकंड-हैंड पोर्शे कार खरीदी थी। उस कार का पिछला इतिहास क्या था, ये तो किसी को मालूम नहीं, लेकिन जेम्स के पास आते ही उसका पुर्जा पुर्जा अभिशप्त हो गया। सबसे पहले तो स्वयं जेम्स ही उस कार को चलाते हुए एक दुर्घटना का शिकार हुआ। दुर्घटना इतनी जबर्दस्त नहीं थी पर जेम्स सीट पर बैठा का बैठा ही रह गया। कुछ दिनों तक कार जेम्स के घर पर ही खड़ी रही, फिर उसे एक कार-शौकीन जार्ज बेरिस ने खरीद लिया, लेकिन उसने कार को खुद इस्तेमाल करने के बजाय उसके पुर्जे-पुर्जे अलग-अलग करके बेच डालने का फैसला किया।  

पोर्शे का इंजन एक डॉक्टर ने खरीदा, जो खुद एक शौकिया कार-रेसर थे। उन्होंने उस इंजन को अपनी कार में फिट करवा लिया, लेकिन एक मुकाबले के दौरान डॉक्टर साहब कार को संभाल नहीं पाए और दुर्घटना में मारे गए। इसी तरह जिस व्यक्ति ने उसकी ड्राइव-शाफ्ट खरीदी थी, उसी मुकाबले में वो भी एक दुर्घटना में घायल हो गया। और तो और पोर्शे की बुरी तरह क्षतिग्रस्त बाडी और चेसिस को सड़क सुरक्षा अभियान के तहत एक बड़ी ट्राली पर रखकर जगह जगह घुमाया गया, लेकिन विडंबना यह रही कि हर जगह कुछ न कुछ हादसा होता रहा। बहरहाल, जेम्स की पोर्शे और उसकी अभिशप्तता का अंत तब हुआ, जब कल-पुर्जो समेत उस कार के अस्थि-पंजर को ट्रेन द्वारा लास एंजेल्स वापस भेजा जा रहा था। रास्ते में पता नहीं कब, कहां और कैसे-वह कार ऐसी गायब हुई कि कोई उसका पता भी नहीं पा सका।  


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