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आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे (ग़ज़ल)

14 सितम्बर 2015

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रात की काली सियाही जिंदगी में छा गई तो आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे चार दिन की चांदनी जब आदमी को भा गई तो आप ही समझाइये हम क्या करेंगे जन्नतों के ख्वाब सारे टूटकर बिखरे हुए है, बस फ़रिश्ते रो रहे इस बेबसी को दो जहाँ के सब उजालें तीरगी जो खा गई तो आप ही फरमाइये हम क्या करेंगे वो थमा था, चैन से सोया हुआ था, सब तरह से बात भी वो तो हमारी मानता था इक समंदर को नदी की तिश्नगी भरमा गई तो आप ही जतलाइये हम क्या करेंगे खूब थे उसके उजालें, चाँद-तारों को भी पाले, जगमगाती कायनातों को हँसाती आसमानों की ग़ज़ल से रौशनी शरमा गई तो आप ही कह जाइये हम क्या करेंगे आपकी वो हरकतें, तहजीब की हद भूल के बस यों हंसी से डोलना जैसे बला हो आपकी इन आदतों से आशिकी बल खा गई तो आप ही शरमाइये हम क्या करेंगे जिंदगी की गर्द से सपने उठाकर रूह में जब वेदनाएं घुल गई फिर डायरी को, प्रेम की पीड़ा मिली बस शायरी भी आ गई तो आप ही तर जाइये हम क्या करेंगे ----------------------------------------------------------------------------------------------------------- ( मौलिक एवं अप्रकाशित ) मिथिलेश वामनकर, 29 नवम्बर, 2014 ----------------------------------------------------------------------------------------------------------- बह्र-ए-रमल मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम (14-रुक्नी) ( अर्कान- फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन) ( वज़न- 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122 )
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

वो थमा था, चैन से सोया हुआ था, सब तरह से बात भी वो तो हमारी मानता था इक समंदर को नदी की तिश्नगी भरमा गई तो आप ही जतलाइये हम क्या करेंगे बहुत सुन्दर गजल है ,बधाई!

23 सितम्बर 2015

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आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे (ग़ज़ल)

14 सितम्बर 2015
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रात की काली सियाही जिंदगी में छा गई तो आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे चार दिन की चांदनी जब आदमी को भा गई तो आप ही समझाइये हम क्या करेंगेजन्नतों के ख्वाब सारे टूटकर बिखरे हुए है, बस फ़रिश्ते रो रहे इस बेबसी को दो जहाँ के सब उजालें तीरगी जो खा गई तो आप ही फरमाइये हम क्या करेंगेवो थमा था, चैन से सोया हुआ

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नज़्म

14 सितम्बर 2015
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वक़्ते-पैदाइश पे यूंमेरा कोई मज़हब नहीं था अगर था मैं,फ़क़त इंसान था, इक रौशनी थाबनाया मैं गया मज़हब का दीवाना कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ कि मुझको क्यूँ बनाया यूंपहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों कहा सबने कि मज़हब लिक्ख दि

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