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Ghazal

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मिथिलेश वामनकर

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मिथिलेश वामनकर

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नज़्म

14 सितम्बर 2015
2
0

वक़्ते-पैदाइश पे यूंमेरा कोई मज़हब नहीं था अगर था मैं,फ़क़त इंसान था, इक रौशनी थाबनाया मैं गया मज़हब का दीवाना कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ कि मुझको क्यूँ बनाया यूंपहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों कहा सबने कि मज़हब लिक्ख दि

आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे (ग़ज़ल)

14 सितम्बर 2015
4
1

रात की काली सियाही जिंदगी में छा गई तो आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे चार दिन की चांदनी जब आदमी को भा गई तो आप ही समझाइये हम क्या करेंगेजन्नतों के ख्वाब सारे टूटकर बिखरे हुए है, बस फ़रिश्ते रो रहे इस बेबसी को दो जहाँ के सब उजालें तीरगी जो खा गई तो आप ही फरमाइये हम क्या करेंगेवो थमा था, चैन से सोया हुआ

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