नज़्म
वक़्ते-पैदाइश पे यूंमेरा कोई मज़हब नहीं था अगर था मैं,फ़क़त इंसान था, इक रौशनी थाबनाया मैं गया मज़हब का दीवाना कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ कि मुझको क्यूँ बनाया यूंपहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों कहा सबने कि मज़हब लिक्ख दि