उबलते अंडे सा
बाहर से ज्यों का त्यों
अंदर विदग्ध जीवन की
करुण चीख-पुकार
महानगर है यह
यहां साबूत कहां
बचा होता है आदमी
पेट अपने परिवार का
सिरपर उठाए
अपने नसीब को कोसता
कब और कैसे
पहुंच जाता है कोई आदमी
इस अजगर के पेट में
यह कहां पता चल पाता
किसी आदमी को
यहां अपने जीवन के
अन्तिम दिनों में
आदमी की आखरी
ख्वाहिश बनकर
उभर आता है
अपना गावं
मिट्टी अपनी
गांव का चौपाल
खेत खलिहान
अंततः घर वापसी को
बेचैन हो उठता है वह
पर लौटे तो कैसे?
वह पगडंडी
जिसपर चलकर
महानगर में
आया होता है वह
कुंडली मारकर
यहींकहीं
सोयी पड़ी होती है
अपने दोनों हाथों से
टटोलने पर भी
नहीं मिलते
उसे अपने ही पांव।