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नि: शब्द के शब्द

2 नवम्बर 2022

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निशब्द के शब्द-  धारावाहिक -  पहला भाग

कहानी / शरोवन

***

अगर
आप विश्वास करते हैं कि, आत्माएं होती हैं और वे भटकती हैं तो यह कहानी
आपको बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करेगी. यदि आप भटकी हुई आत्माओं और बे-बस,
मजबूर और अपने प्यार की तलाश में परेशान आत्माओं पर विश्वास नहीं करते हैं
तो लेखक के पास आपके लिए किसी भी प्रकार का कोई भी संतुष्ट उत्तर नहीं है.

***

     
जाड़े की दांत किटकिटाती हुई ठंड. बर्फ के समान ओस के कारण सर्द और भीगी
रात. चारो तरफ जैसे जमी हुई ओस की धुंध छाई हुई थी. इस समय ठंड से कहीं
अधिक पाला पड़ रहा था. इस कारण पाले की बूँदें कट-कट कर वृक्षों की पत्तियों
और टहनियों से अपने बदन को छीलती हुईं नीचे धरती के गर्भ में टप-टप करके
समाती जा रही थीं. शहर से काफी दूर इस सन्नाटों से भरे कब्रिस्थान में
मोहित सारे दुनियां-जहांन की परवा किये बगैर, इस आधी रात में अपने कंधे पर
फावड़ा रखे हुए उस सदियों पुरानी कब्र की तरफ बढ़ता जा रहा था, जिसके बारे
में मोहिनी ने उसे बताया था. ठंड के कारण उसने अपना सारा चेहरा, कान आदि,
गर्म मफलर से बाँध रखे थे. हाथों में उसके काले गर्म दस्ताने थे और इसके
साथ ही उसने काली पेंट और शर्ट के साथ ही काले जूते भी पहन रखे थे. उसे
देखते ही ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे कोई काली भयावह छाया किसी को इस
दुनियां से ज़ह्न्नम रसीद कर देने का एक बुरा विचार बनाये हुए अपने मन्तव्य
की ओर बढ़ी चली जा रही है.

      फिर जैसे ही मोहित उस कब्र के पास
पहुंचा, उसने अपनी जेब से पेन्सिल टॉर्च निकालकर जलाई और उसकी मद्धिम रोशनी
में उस कब्र के ऊपर खड़ी सलीब पर लिखे हुए अंग्रेजी के शब्द पढ़े- उस पर
लिखा हुआ था, 'कैटी जौर्जियन,  10/10/1800 - 11/8/1890. नाम और तारीख को
पढ़ते ही उसने अनुमान लगाया कि वर्तमान की ईस्वी 2020 के हिसाब से इस कब्र
की उम्र भी सौ साल से भी अधिक है. मगर उसके ऊपर की मिट्टी को जब देखा तो
महसूस हुआ कि यह कब्र जैसे एक महीने से अधिक पुरानी नहीं है. अभी भी उसमें
से ताज़ी खुदी हुई मिट्टी की सौंधी गंध आती थी. जरुर किसी न किसी ने इसको
फिर से खोदा है- किस कारण? सोचते ही मोहित को कल शाम मोहिनी के अपनी भारी
और दर्दभरी आवाज़ में कहे हुए शब्द याद आ गये,' मैं अगर जीवित हूँ तो सिर्फ
तुन्हारे ही लिए, वरना मैं तो संसार की दृष्टि में . . .'

      'मर
चुकी  हूँ.' खड़े हुए मोहित अपने होठों में ही बुदबुदा गया. तुरंत ही उसके
चेहरे पर प्रतिशोध के लाल अंगारे धधकने लगे. यही सोचते हुए मोहित ने अपने
कंधे से फावड़ा उठाया और कब्र को खोदना आरम्भ कर दिया. अभी उसने चार-पांच
फावड़े ही चलाये थे कि तभी अचानक से कब्रिस्थान के प्राचीर से लगी हुई सड़क
से आती हुई किसी गाड़ी की हेडलाइट्स की तेज रोशनी के कारण उसकी आँखे चौंधिया
गईं. उसने तुरंत ही अपने को एक वृक्ष की ओट में छिपाया, फिर अँधेरे का
सहारा लेते हुए फावड़े को वहीं छोड़ा और कब्रिस्थान की दीवार को लांघ कर
बेतहाशा भागने लगा. काफी दूर पहुँचते हुए उसने पीछे देखा तो घुप अन्धकार के
सिवा उसे और कुछ भी नज़र नहीं आया. हाँफते हुए वह धीरे-धीरे, तेजी से कदम
बढ़ाने लगा. लेकिन अभी वह मुश्किल से दस कदम ही चला होगा कि उसे फिर से अपनी
तरफ आती हुई किसी गाड़ी की दो हेड लाइट्स की तेज रोशनी दिखाई दीं तो वह फिर
से हाँफते हुए भागने लगा. भागते-भागते वह जब थक कर बे-दम गया तो तुरंत ही
एक बिजली के लोहे के पोल का सहारा लेकर पल भर के लिए दम लेने के लिए खड़ा
हुआ तो अपने शरीर के भारी वेग के साथ ही उसे तुरंत ही छोड़ भी दिया. छोड़ते
ही वह सड़क के नीचे की तरफ झूलते हुए गिर पड़ा- बिजली का पोल बर्फ से भी
ज्यादा ठंडा था. तभी उसके पीछे से आती हुई गाड़ी अपनी तीव्र रोशनी के साथ
भर्र से आगे निकल गई. निकल गई तो इस बर्फीली ठंडी रात में भी अपने माथे पर
आई हुई पसीने की बूंदों को अपने हाथ के दस्तानों से पोंछते हुए मोहित ने
चैन की सांस ली.

      सुबह की पौ फटने से पहले ही मोहित पैदल चल कर
थका-हारा अपने एक कमरे के निवास पर पहुंचा और धड़ाम से बिस्तर पर गिर पड़ा.
रात की घटना के लिए मोहिनी के द्वारा दी गई जानकारी को अंजाम तक न पहुंचा
पाने के बारे में खुद को दोषी मानते हुए इस बे-मतलब की दहशत ने उसके सारे
हाथ-पाँव फुलाकर रख दिए थे. यही सोचता हुआ वह कब सो गया, उसे मालुम ही नहीं
पड़ा.

                * * *
  गोरे बिट्रिश अंग्रेजों के सदियों
पहले बनवाये हुए कब्रिस्थान की देखभाल करने और चर्च के अंदर साफ़-सफाई करने
के लिए पचास वर्ष की उम्र के नबीदास को स्थानीय चर्च की समिति ने इस नौकरी
पर रखा हुआ था. उसको थोड़े से वेतन के साथ रहने को मकान और मकान में बिजली,
पानी भी निशुल्क दिया गया था. अपने परिवार में उसकी पत्नि लीली के साथ एक
बेटी भी उसको मिली थी. लेकिन मिशन की सेवा में आने से पहले ही उसने अपनी
बेटी की शादी अपने गाँव में रहते हुए ही कर दी थी. नबीदास यूँ तो अपने गाँव
से ही धाकड़ किस्म का आदमी था. कब्रिस्थान जैसे मनहूस स्थानों में उसके
अतिरिक्त कोई भी यह काम करने के लिए अन्य दूसरा उपलब्ध नहीं था. उसका यह
दूसरा काम दिन भर कब्रिस्थान की देखभाल करना और उसको साफ़ सुथरा रखना था. जब
कभी किसी की मृत्यु हो जाती थी तो मुर्दे के रख-रखाव, उसे नहलाना-धुलाना,
उसके लिए बक्से आदि के बनवाने में सहायता करना भी था. वह दिन भर कब्रिस्थान
की निगरानी रखता और शाम होते ही कब्रिस्थान के गेट पर ताला लगाकर अपने घर
चला जाता था. लेकिन वह जितना हिम्मती और साहसी व्यक्ति था, उतना ही ठेठ
गंवारू भी था. इतना गंवारू कि कभी-भी क्रोध में दूसरों को अपशब्द भी बोल
देता था. उसकी पत्नि बहुत ही अधिक खर्चीली थी. कल के लिए कुछ बचे या नहीं,
अपने भविष्य के प्रति वह अन्य घरेलू स्त्रियों की तरह कभी परवा ही नहीं
करती थी. इसीलिये, नबीदास कब्रिस्थान में कब्रों की सफाई करने, उन पर सफेदी
करने, नये मुर्दों को गाड़ने के लिए कब्रें खोदने आदि जैसे कामों से उसे जो
भी अतिरिक्त आय होती थी, उसको वह कभी भी अपनी पत्नि को नहीं दिया करता था.
उन पैसों को वह अपनी गाँव की आदत के समान मिशन के खपरैल के बने मकान की एक
खपरैल में, एक टीन के छोटे से बक्स में बंद करके छिपा देता था. फिर जब
लीली सो जाती थी तो खुद रात में सोने से पहले उस बक्से को एक बार फिर से
देखकर, निश्चिन्त होकर बड़े ही इत्मीनान से सो जाता था.

      मगर आज
जब वह कब्रिस्थान के प्राचीर का मुआयना करने आया तो वर्षों पहले की मोहित
के द्वारा एक अंग्रेजी कब्र को आधा खुदा हुआ देख और पास ही में निर्जीव से
पड़े हुए फावड़े को देख कर वह जितना अधिक विस्मित हुआ उससे भी अधिक वह किसी
अन्य के प्रति संदेह की परिधि में आ गया. 'अवश्य ही किसी न किसी ने, किसी
भी मकसद से इतनी पुरानी कब्र को दोबारा खोदने का प्रयास किया होगा?' इस
प्रकार की धारणा मन में बनाते हुए नबीदास के कदम स्वत: ही चर्च के प्रीस्ट
की कोठी की तरफ बढ़ गये. वहां पहुंचने पर नबीदास ने सारी घटना उन्हें बताई
तो प्रीस्ट भी तुरंत ही कब्रिस्थान के प्राचीर में पहुंच गये. फिर सब कुछ
देख और सुन कर प्रीस्ट नबीदास से बोले,

'हमारा किसी का कुछ नुक्सान
तो हुआ नहीं है. चुपचाप फावड़ा उठाओ और इस बात को हम दोनों के मध्य ही रहने
दो. अगर पुलिस में रिपोर्ट करेंगे तो बेमतलब ही कोर्ट-कचेहरी के झंझटों में
चक्कर काटते फिरेंगे.'

'वह तो ठीक है, लेकिन . . .' नबीदास ने जैसे सहमते हुए कुछ कहना चाहा तो प्रीस्ट बीच में ही बोल पड़े,

'लेकिन क्या?'

'वह
यह कि, साहब! आप कब्र के सिर की तरफ जो होल देख रहे हैं, वह कब्र-बिज्जू
का है और कब्र-बिज्जू हमेशा ही ताजा मांस खाने के लिए ऐसा होल बनाकर,
कब्रों में गड़े मुर्दे का मांस खाया करता है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि किसी
ने कोई लाश लाकर इस पुरानी कब्र में दबा दी हो? यह भी हो सकता है कि यह
किसी कत्ल का केस हो?'

'हां. . .हां, ठीक है. लेकिन हमें और तुम्हें
किसी भी कानूनी पचड़े में पड़ने की आवश्यकता नहीं है. तुम भी कैम्पस में
किसी से भी इस बात का ज़िक्र तक मत करना. अपनी वाइफ से भी नहीं.'

     
एक कड़ी हिदायत देकर प्रीस्ट चले गये तो नबीदास भी अपना सा मुहं लेकर वहीं
एक ढेला फेंकने की दूरी पर पत्थर की बनी एक कब्र पर चुपचाप बैठ गया और
मनहूस, चुप्पी से भरे कब्रिस्थान के प्राचीर को मुंह बाए, निरुत्तर सा
ताकने लगा. प्रीस्ट ने उसकी बात पर विश्वास न करके जैसे उसका सारा मूँड ही
खराब कर दिया था.

      नबीदास, अकेला और खामोश बैठा यही सब कुछ सोच
रहा था कि, तभी सोचते हुए उसने वारदात हुई वाली कब्र की तरफ यूँ ही निहारा
तो देखते ही उसके हाथ-पैरों और शरीर में बहता हुआ गर्म खून अचानक से जम
गया. उस कब्र के ऊपर कोई स्त्री अपने सफेद वस्त्रों में उसकी तरफ पीठ करके
बैठी हुई थी. तुरंत ही उसने खुद को विश्वास दिलाने की इच्छा से अपनी दोनों
आँखों को मला और फिर से जब उस कब्र की तरफ देखा तो इस बार वह स्त्री उसी
कब्र के पास से जाती हुई कब्रिस्थान की बाहरी दीवार से अपने दोनों हाथ
टिकाये हुए बाहर जाती हुई सड़क की तरफ देख रही थी. उसे देखते ही नबीदास की
रही-सही हिम्मत भी जबाब दे गई और सारे हाथ-पाँव फूल गये. वह तुरंत ही अपने
स्थान से उठा और चाहा कि अभी वह गेट के बाहर निकल जाए, लेकिन अपने हाथों
में फूल और अगरबत्तियों का पैकेट लेकर आते हुये श्रीमती जूडी तिर्वासन को
देख कर वह ठिठक गया. आरम्भिक दुआ-सलाम के बाद उसने जूडी से यूँ ही पूछ
लिया. वह बोला कि,

'अभी थोड़ी देर पहले क्या आप उस मिट्टी ( दफन किये
हुओं को और मरे हुए को ईसाई और मुस्लिम समुदाय में मिट्टी कहा जाता है )
की तरफ भी गईं थी.' उसने उस संदेह से घिरी कब्र की ओर इशारा किया.

'नहीं तो. मैं वहां क्यों जाऊंगी. मेरी मां की कब्र तो दूसरी तरफ है. आज उनकी बरसी है, इसी लिए ये फूल और अगरबत्तियाँ लाईं हूँ.?'

'शायद आँखों से भ्रम हो गया हो?' नबीदास बोला.

'ऐसा
भ्रम ठीक नहीं होता है. इतने बूढ़े भी नहीं है आप?' कहते हुए, मुस्कराती
हुई जूडी चली गई तो नबीदास ने एक बार फिर से उसी कब्र की तरफ देखा, और फिर
शीघ्र ही प्रीस्ट की कोठी की तरफ जल्दी-जल्दी जाने लगा. अभी जो कुछ उसने
देखा था, उसी के बारे में सब कुछ बताने के लिए.

      जब तक नबीदास
प्रीस्ट की कोठी की तरफ पहुंचा, प्रीस्ट महोदय अपनी कार के पास खड़े हुए
कहीं जाने के लिए तैयार थे. उनका ड्राईवर भी उन्हीं से कुछ दूर पर खड़ा हुआ
था. अपनी तरफ नबीदास को आते हुए देख प्रीस्ट तुरंत ही अपने स्थान पर स्थिर
हो गये और नबीदास को अपने पास आकर उसे प्रश्नचिन्ह दृष्टि से एक संशय से
देखने लगे. नबीदास कुछ कह पाता, इससे पहले ही वे उससे बोले,

'अब क्या है?'

तब नबीदास ने सारी बात विस्तार से बताने के बाद उनसे एक याचना की. वह बोला कि,

'साहब ! मैं अब से यह कब्रिस्थान का काम नहीं कर पाऊंगा.'

'क्यों? तुम तो बहुत हिम्मती हो. सारे कैम्पस के लोग तुमको शेर बोलते हैं ?'

'हां. वह सब तो ठीक है लेकिन . . .'

'लेकिन क्या?'

'मैं
हाड़-मांस के मनुष्य और जानवरों से तो मुकाबला कर सकता हूँ, मगर बलाओं से
नहीं. अभी तो वह कब्रिस्थान में मिली है, कल को अगर वह मेरे घर में आ गई तो
फिर मैं क्या करूंगा?'

'कौन सी बला? तुम अपने होश में तो हो. तुम्हारा मतलब क्या है?'

'मरने के बाद भटकने वाली आत्माओं से. ऐसी आत्माएं जिनके हाड़-मांस नहीं होता है.'

'?' - प्रीस्ट बड़े ही आश्चर्य के साथ नबीदास का चेहरा ताकने लगे तो वह उनसे आगे बोला,

'आप जितना भी जल्दी हो सके अपना इंतजाम कर लें. मैं यह काम नहीं करूंगा. मैंने अपना फैसला आपको बता दिया है.'

तब प्रीस्ट नम्र हुए और उससे नम्रता के स्वर में बोले,

'देखो
तुम बहुत थके हुए लगते हो. जाकर आराम करो. मैं अभी शीघ्रता में हूँ. शाम
को वापस आकर तुम से इस मसले पर फिर बात करूंगा.' कहकर प्रीस्ट कार में बैठ
कर चले गये तो नबीदास फिर से कब्रिस्थान के प्राचीर की तरफ जाने लगा. आखिर
नौकरी थी; जब तक है तब तक जिम्मेदारी निभानी तो थी ही.

                     * * *
      
  लगभग पूरे तीन घंटों की भारी नींद के बाद मोहित की जब आँख खुली तो
अच्छी-खासी धूप उसके कमरे का भ्रमण करने के पश्चात खिड़की के सहारे बाहर
नीचे कूदने का प्रयास कर रही थी. आज रविवार था और बाहर अच्छा, खिला हुआ दिन
मुस्कराता हुआ उसका स्वागत कर रहा था. बाहर कभी-कभार चिड़ियों और परिंदों
के चह-चहाने की आवाजें सुनाई दे जाती थीं. यह सब देख कर मोहित का मन रात की
घटना के कारण अपने-आप ही हल्का होने लगा. फिर अपने को अस्त-व्यस्त दशा में
देख कर मोहित तुरंत ही उठ कर बैठ गया. तभी उसको स्नानघर से पानी के चलने
की ध्वनि सुनाई दी तो उसको ध्यान आया कि नगर पालिका की तरफ से आज पानी समय
पर आ चुका था. यह सोचता हुआ वह स्नानघर की तरफ गया तो देखा पानी का बड़ा
बालटा पूरी तरह से भर चुका था. उसने पानी बंद किया और फिर से कमरे में आकर
अपने जूतों के बंध खोलने लगा. मगर फिर न जाने क्या सोचकर उसने अपने जूतों
के बंध फिर से बाँध लिए और कमरे से बाहर आकर बस-स्टैंड की केन्टीन की तरफ
बढ़ने लगा. वहां जाकर उसने दो कचौड़ियाँ खाकर अपनी पेट की भूख शांत की और फिर
एक प्रकार से ताज़ा दम होकर अपने कमरे की तरफ जाने लगा. मगर अपनी सोचों और
परेशानियों में कब वह अपनी वही पुरानी जगह पर आ गया, उसे पता तब चला जबकि
उसने अपने आपको तावी नदी के तट पर आया. तावी का पानी बड़े ही शांतमय तरीके
से जैसे अपने ही स्थान पर हल्के-हल्के थिरक रहा था. कुछेक मछुआरे उसके
किनारे स्थान-स्थान पर बैठे हुए मछलियां फांसने की उम्मीद में अपनी डोरें
डाले हुए बैठे थे. ढलती हुई शाम का सहारा लेते हुए वृक्षों की पत्तियाँ
दिनभर की थकान मिटाने के धेय्य से दूर क्षितिज की गोद में जाते हुए सूर्य
को मानो नमन कर रही थी. मोहित भी अपने वही पुराने स्थान पर, तावी के तट पर
एक किनारे आकर चुपचाप बैठ गया था. बैठे हुए स्वत: ही उसकी आँखों के सामने
उसके जिए हुए दिन फिर एक बार किसी चल-चित्र के समान आकर अपनी स्मृतियों को
जैसे साकार करने लगे . . .'
  'देखिये ! मुझे मॉफ कर दीजिये. मेरा यह
आशय बिलकुल भी नहीं था. मैं तो पत्थर को तावी के जल में फेंक रही थी, पर वह
गलती से आपके सिर में जा लगा. आपके कोई चोट तो नहीं लगी?'

'??'- मोहित खड़े होकर बड़ी हैरानी से उस लड़की का चेहरा ताकने लगा.

'आपने कुछ बोला नहीं? आप मुझसे नाराज़ तो नहीं हैं.'

'आप
बोलना बंद करें तब तो मैं कुछ बोलूं?' मोहित ने कहा तो वह लड़की सहसा ही
चुप हो गई और बड़ी गम्भीरता से मोहित का मुख ताकने लगी. तब कुछेक पलों की
चुप्पी के पश्चात वह लड़की मोहित से बोली,

'आप नाराज़ तो नहीं हैं?'   

'क्यों?'

'वह मैंने आपको पत्थर मारा था.'

'मारा था या गलती से लग गया था?'

'नहीं, गलती से लगा था.'

'हां, लगा था.'

'आपके चोट तो नहीं लगी?'

'हां, जरुर लगी है, लेकिन इतनी गम्भीर भी नहीं है कि मैं शिकायत करूं.'

'आप बिलकुल ठीक हैं?'

'हां, बिलकुल ठीक हूँ.'

'तो अब मैं जाऊं?'

'जरुर
जाइए, लेकिन अपना ख्याल रखियेगा.' मोहित ने कहा तो उस लड़की ने जाते-जाते
पीछे मुड़कर एक बार उसे फिर देखा, और जाकर अपनी सहेलियों में छिप गई.

     
यह थी सबसे पहली मुलाक़ात मोहित की मोहिनी से, जब वह अपनी आदत के अनुसार
तावी के तट पर अपनी सोचों और विचारों की दुनिया में बैठा हुआ था और मोहिनी
अपनी सखियों के साथ इसी तावी के तट पर घूमने के लिए आई थी. तभी उससे कुछ ही
दूर पर मोहिनी के साथ उसकी अन्य सहेलियाँ भी तावी के जल में पत्थर फेंक
रही थी. उसी समय गलती से मोहिनी का एक पत्थर मोहित के सिर में जा लगा था.
उसके पश्चात उस लड़की की दूसरी मुलाक़ात तब हुई जब वह अपने कॉलेज के गार्डन
में अकेला एक अशोक के वृक्ष के नीचे उसकी घनी छाया में नितांत अकेला बैठा
हुआ दूर क्षितिज में उड़ते हुए आवारा बादलों के काफ़िलों को निहार रहा था.
तभी वह लड़की न जाने कहाँ से अचानक ही उसके सामने आ खड़ी हुई और उससे
सम्बोधित हुई. वह बोली,

'जी ! सुनिए?'

'?'- मोहित ने अचानक ही सुना तो उसने सामने देखा.

'आपने मुझे पहचाना?'

'?'- तब मोहित इधर-उधर देखते हुए उसके दोनों हाथों को देखने लगा.

'नहीं है मेरे दोनों हाथों में आज कुछ भी?' वह लड़की अपने दोनों हाथ दिखाते हुए बोली.

'आप वह पत्थर मारने वाली?' मोहित ने पूछा.

'जी हां ! बड़ा अच्छा नाम दिया है आपने मुझे?' वह लड़की थोड़ा खिन्न होते हुए बोली तो मोहित ने कहा कि,

'आपने भी तो अपना नाम नहीं बताया?'

'आपने पूछा भी नही?'

'चलिए अब बता दीजिये.'

'मोहिनी व्यास. यहाँ बी. ए. फायनल में हूँ और आप?'

'मैं मोहित कुमार चौहान. मैं एम. कॉम. के फायनल में हूँ.'

     
इसके पश्चात दोनों की और मुलाकातें बढ़ीं. दोनों हर दिन कॉलेज आते. मिलते,
साथ रहते, एक-दूसरे से बातें करते. नतीजा यह हुआ कि दोनों आपस में बहुत
करीब आ गये. एक-दूसरे को चाहने लगे, प्यार करने लगे. प्यार के सिलसिले जब
और गहराइयों तक जाकर डूबने लगे तो दोनों को एहसास हुआ कि जिन प्यार की
पवित्र आस्थाओं के रास्तों पर उन दोनों ने अपने कदम बढ़ा दिए हैं, वहां जाकर
प्रेम के इस पाक सागर में वे डूब तो सकते हैं मगर बाहर आकर अपने इस पवित्र
प्रेमी रिश्ते की तौहीन नहीं कर सकेंगे. हांलाकि, मोहित बेहद खुले विचारों
वाला युवक था. अपने प्यार को सफल बनाने के लिए वह किसी भी हद तक जाने के
लिए तैयार था. मगर मोहिनी को अपने भावी भविष्य की बहुत चिंता थी. कभी-कभी
वह मोहित से अपने रिश्ते को लेकर अत्यंत भयभीत भी हो जाती थी. आजकल देश में
जो माहौल चल रहा था, उसके बारे में तमाम तरह की दिल दहला देनेवाली खबरों
को सुनकर और अखबारों में पढ़ कर उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे.

     
फिर कॉलेज की सालाना परीक्षाएं समाप्त हुई तो मोहित और मोहिनी के अलग होने
के दिन भी करीब आ गये. घर जाने से पहले मोहित ने मोहिनी को अपने प्यार का
वास्ता दिया. साथ ही अपने पिता जो अपने क्षेत्र के गाँवों के प्रधान थे और
साथ ही जमीदार भी. सारे आस-पास के गाँवों में उनके नाम की तूती बोलती थी.
तूती भी ऐसी कि जो काम वे चाहते थे, उसे वे साम,दाम और दंड से करवा ही लेते
थे. अपने पिता की तमाम अच्छाइयां बताते हुए मोहित ने कहा कि,

'घर
जाते ही मैं अपने पिता से तुम्हारा ज़िक्र करूंगा. वे बहुत ही ऊंचे और खुले
विचारों के हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे रिश्ते को स्वीकार कर
लेंगे.'

'कैसे कर लेंगे? मुझे बहुत डर लगने लगा है?' कहते हुए मोहिनी की आँखें भर आईं.

'इसमें
रोने की क्या बात है? आखिरकार मैं अपने पिता का इकलौता पुत्र हूँ? मैं
उन्हें अच्छी तरह से जानता हूँ?' मोहित बोला तो मोहिनी ने अपनी आँखें,
दुपट्टे से पोंछते हुए कहा,

'इसी लिए तो डरती हूँ.'

'क्यों डर लगता है तुमको?'

'क्योंकि
मैं अनुसूचित समाज से सम्बन्ध रखती हूँ और तुम एक ऊंची जाति से. क्या
तम्हें यह सब मालुम नहीं था. यही कारण था कि मैं तुम्हारी इस प्यार की डगर
पर कदम नहीं रखना चाहती थी, मगर . . .'

'मगर क्या?'

'तुमने
मुझे मजबूर कर दिया था. और अब ऐसी जगह पर लाकर छोड़ा है कि मैं ना आगे जा
सकती और ना ही पीछे वापस लौट सकती हूँ.' कहते हुए मोहिनी फिर से सुबकने लगी
तो मोहित उससे बोला कि,

'मुझे तुम्हारे बारे में यह सब कुछ मालुम
था. मुझे मालुम था कि तुम एक मध्यम वर्गीय परिवार से हो. तुम्हारे पिता
इंटर कालेज में अध्यापक हैं और तुम एक छोटी जाति से आती हो, पर मैं इन सब
दकियानूसी बातों को नहीं मानता हूँ. ईश्वर ने हर इंसान को एक समान बनाया
है. धर्म के नाम पर हर मनुष्य की अपनी आस्था है. किसी को कण-कण में भगवान
नज़र आते हैं तो किसी को सारी दुनिया में कोई भी देवता/ईश्वर नहीं दिखाई
देता है. तुम्हें अगर मुझ पर और मेरे पिता पर फिर भी विश्वास नहीं है, तो
चलो मेरे साथ, अभी, इसी समय. हम दोनों मन्दिर में अपना विवाह करेंगे और तुम
मेरे साथ मेरे घर की दुल्हन बनकर साथ चलोगी.'

'?' - मोहिनी ने सुना
तो फिर कहा तो कुछ भी नहीं. मगर अपनी भरी-भरी आँखों के साथ अपना सिर मोहित
के कंधे पर रख दिया. फिर कुछेक क्षणों के पश्चात सामान्य होते हुए बोली,

'अब
इतनी जल्दबाजी भी नहीं करना है. तुम खुशी से घर जाओ. अपने परिवार में मेरी
बात करो, फिर अपने परिवार के साथ मेरे घर आना और डोली-बाजों के साथ मुझे
बड़ी शान से ले जाना.'

      उसके बाद सचमुच हुआ भी यही. मोहित एक
निश्चित समय पर अपने पिता, बहन, मां, चाचा और तमाम अन्य रिश्तेदारों के साथ
मोहिनी के घर आया. बाकायदा दोनों के रिश्ते की मंजूरी हुई. दोनों की मंगनी
कर दी गई और आठ महीनों के बाद खेतों में से आलू की खुदाई के तुरंत बाद
दोनों के विवाह की तारीख भी पक्की कर दी गई. मोहिनी ने देखा और कानों से
सुना भी और फिर दांतों तले अंगुली दबाकर रह गई. इस मंगनी का प्रभाव कुछ ऐसा
पड़ा कि मोहिनी के महल्ले में रहनेवाले भी मोहित के पिता के गुणों का बखान
करने लगे.

      सालाना परीक्षाओं का परिणाम आया तो दोनों ही अच्छे
नम्बरों से उत्तीर्ण हो गये. मोहिनी को अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ
मिला और बिजली विभाग के सरकारी कार्यालय में लिपिक की नौकरी में उसका चयन
हो गया. एक तरफ सरकारी नौकरी का मिलना और दूसरी तरफ अपने मन-पसंद महबूब के
साथ शादी की तैयारियां; प्रसन्नताओं से भरी वायु के साथ वह अपने सपनों के
साथ आकाश में उड़ाने भरने लगी. दूसरी तरफ मोहित के पिता ने अपने गाँव से
अलग, दिल्ली राजधानी से कुछ दूर एक शहर नांगलोई में मकानों के बनवाने के
लिए 'बिल्डिंग मेटीरियल' का बहुत बड़ा काम आरम्भ किया और उसका पूरा
उत्तरदायित्व मोहित को दे दिया और साथ ही यह हिदायत भी दी कि यही व्यापार
उसके भावी जीवन के लिए उसकी आय का सहारा भी होगा. उसको इसे संभालना होगा.
इस तरह से मोहित को अपना गाँव छोड़ना पड़ा और साथ ही मोहिनी से भी कुछ समय के
लिए अलग होना पड़ा. वह अपने दिल पर अपने प्यार के सारे अरमानों का पहाड़ सा
बोझ लादे हुए नांगलोई आ गया. मगर फिर भी मोहिनी से उसका सम्बन्ध फोन आदि से
बाकायदा बना रहा.

      दिन इसी तरह से व्यतीत हो रहे थे. दिन
होता, रात होती, दिन के सारे काम होते, सूरज निकलता, शाम को ढल जाता, रात
होती, रात के भी काम होते, राजधानी चमकती, शौकीनों की रातें रंगीनियों में
डूबती तो किस्मत के मारों की भूख-प्यास के साथ महज करवटों में ही कट जाती.
मोहित की सुबह मोहिनी से 'शुभ सुबह' के साथ होती, दिन-भर वे किसी न किसी
विषय पर बात करते रहते, फिर शाम ढलती, रात होने लगती और फिर दूसरे दिन की
सुबह की आस में दोनों ही 'शुभ रात्रि' कहकर सो जाते. ऐसा था उनका प्यार,
प्यार का एहसास, मिलन की चाहत कि, कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रता था, जबकि वे बात
किये बगैर रह जाते हों. लेकिन कौन जानता था कि एक दिन ऐसा भी आ गया कि
मोहित की बात मोहिनी से न हो सकी. वह फोन करता तो मोहिनी का फोन बंद का
संकेत देता. व्हाट्स एप पर संदेश भेजता तो उसका कोई भी उत्तर उसे नहीं
मिलता. इस तरह से जब तीन दिन और रातें व्यतीत हो गईं तो मोहित के कान खड़े
हो गये. उसने मोहिनी के घर फोन किया तो वहां से भी उसे कोई उत्तर नहीं
मिला. वह जिस जगह पर काम करती थी, उस कार्यालय में फोन से पता लगाया तो
कार्यालय के बड़े बाबू ने उसको बताया कि मिस मोहिनी कई दिनों से कार्यालय
अपने काम पर नहीं आ रही हैं और उन्होंने कोई अर्जी भी छुट्टी की नहीं दी
है. यह सब सुनकर मोहित परेशान ही नहीं बल्कि हैरान भी हो गया. फिर जब उससे
कुछ भी करते नहीं बना तो बाद में उसने अपने पिता से ही बात की. तब उसके
पिता ने जो कुछ उसे बताया तो उसे सुनकर उसे ऐसा लगा कि, जैसे कोई उसे जमींन
में काफी गहराई तक जबरन ठोंकता चला गया है. उसके पिता ने उसे बताया कि,
'मोहिनी एक दिन अपने काम से वापस घर ही नहीं लौटी है. ना मालुम उसका क्या
हुआ है? पुलिस को इसकी सूचना उसके पिता की तरफ से दे दी गई है. पुलिस भी
इसकी जांच-पड़ताल काफी मुशक्कत से कर रही है. वैसे तुम चिंता न करना, अपना
ख्याल रखना. हम सभी को मोहिनी की चिंता है. जल्द ही कोई सूचना मिलने पर
तुम्हें सूचित करेंगे.'         .   मगर प्यार के दीवाने की परेशान उल्फत
की चोट खाती हसरतें अब कहाँ तक और किस आस में प्रतीक्षा करतीं? मोहित किसी
भी बात की परवा किये बगैर सीधा अपने घर जा पहुंचा. अपने पिता और सारे
परिवार के लोगों से बात की. सभी ने उसको वही जबाब दिया जो उसके पिता ने
उससे फोन पर कहा था. फिर जब उसे तसल्ली नहीं मिली तो वह स्थानीय पुलिस चौकी
जा पहुंचा और मोहिनी की गुमशुदी की जांच के बारे में पूछा तो उसे यह
जानकार हैरानी हुई कि पुलिस स्टेशन में किसी भी प्रकार की मोहिनी के गुम हो
जाने की कोई भी प्राथमिक सूचना नहीं लिखवाई गई थी. यह सुनकर मोहित को अपने
पिता की बात याद आई, उन्होंने कहा था कि पुलिस को सूचित किया जा चुका है
और वह बाकायदा इसकी जांच कर रही है. इसी बात पर मोहित के मस्तिष्क में
मोहिनी के अचानक गायब हो जाने पर संदेह की कीड़े कुलबुलाने लगे. अब उसके पास
केवल एक ही स्थान और बचा था और वह था मोहिनी का अपना घर. वहां जाकर जब वह
मोहिनी को मां-बाप और उसकी बहन से मिला तो उसे देखते ही सबके सब रोने लगे.
तब मोहिनी के पिता ने उसे बताया कि जब वे मोहिनी के गायब हो जाने की
रिपोर्ट थाने में लिखाने गये थे तो उसे बताया गया था उसकी प्राथमिक रिपोर्ट
मोहित के परिवार की तरफ से लिखवा दी गई है और पुलिस अपना काम कर रही है.
यह सुनकर मोहित का संदेह पूरी तरह से यकीन में बदल गया कि, हो न हो, मोहिनी
के साथ अवश्य ही कोई अनहोनी हो चुकी है.

      मोहित किसी तरह से,
अपने टूटे मन के साथ अपने घर पहुंचा. घर पर उसकी मां, पिता और अन्य
रिश्तेदारों ने उसे फिर से समझाया. पिता ने उसे वापस नांगलोई जाकर अपना
कारोबार सम्भालने की राय दी. लेकिन मोहित की नज़र में मोहिनी के गायब किये
जाने का शक का कीड़ा अब अपने परिवार और रिश्तेदारों के इर्द-गिर्द रेंगने
लगा था. इसलिए वह अपने परिवार से नांगलोई जाने की बात कहकर मोहिनी के घर के
ही शहर में एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगा. अब उसने अपने मन में ठान रखा
था कि मोहिनी को ढूंढें बगैर वह कहीं नहीं जाएगा. जिसने भी मोहिनी के साथ
किसी भी तरह का कुछ भी बुरा किया होगा वह उसे देखते ही गोली से उड़ा देगा. 

     
अपने प्यार की बर्बादी के हवाओं में उड़ते हुए चिन्हों के कारण मन में बदले
की भावना के साथ उबलते हुए ज़ज्बात और दूसरी तरफ मोहिनी की आँखों में अंतिम
बार ढुलकते हुए आंसुओं को याद करते हुए मोहित के अब तक पन्द्रह दिन बीत
चुके थे और अब तक उसकी गुमशुदी का एक सूत्र भी उसके हाथों में नहीं आ सका
था. सारा दिन वह यूँ ही, इन्हीं ख्यालों के साथ गुज़ार देता था. रात होती तो
अपने कमरे की सूनी छत को ही देखता रहता था. हरेक सुबह की उगती हुई पहली
किरण एक उम्मीद के साथ उसकी पलकों को खोलती थी तो उस दिन की ढलती शाम उसके
गले में किसी अर्थी से उठाये फूलों की निराशा की माला पहना देती थी. वह हर
पल यही सोचता रहता कि, मोहिनी को क्या हो गया? वह कहाँ चली गई? यदि उसे
जाना ही था, उससे विवाह नहीं करना था तो वह सहज ही कह देती? कह देती तो वह
बहुत आसानी से उसके पथ से विलीन भी हो जाता. फिर सोचता कि, नहीं, मोहिनी
ऐसा कभी भी नहीं करेगी. वह इस प्रकार की लड़की भी नहीं है. जरुर ही उसके साथ
कोई अप्रिय घटना हो चुकी है. अपने इसी रंज और मोहिनी की स्मृतियों के साथ
अक्सर ही मोहित कॉलेज के गार्डेन में पड़ी उस बेंच पर आकर बैठ जाता था, जहां
पर उसने कभी मोहिनी के साथ-साथ सदा जीने और मरने की कसमें खाईं थीं.

     
सो एक दिन, मोहित इसी प्रकार एक दिन कॉलेज के गार्डेन में अकेला बैठा हुआ
था. कॉलेज अभी खुला नहीं था, मगर कॉलेज की बड़ी फील्ड सदा ही शाम के समय
खिलाड़ियों से भरी रहती थी. सुन्दर और मोहक गार्डन में भी शाम के समय रंगत
हो जाती थी. फिर भी आज इस गार्डन में कोई अधिक भीड़ नहीं थी. मोहित के
अतिरिक्त कुछेक लोग और दो-एक लड़कियां  ही नज़र आती थीं. मगर गार्डेन का
सूनापन देख कर जब वे लोग भी नदारद हो गये तो केवल मोहित ही बैठा रहा. अब
केवल मोहित के अलावा गार्डन में यदि कोई था, तो वह था और वहां का सन्नाटा,
खामोशी और एक मनहूस चुप्पी.

      अभी मोहित अपने ख्यालों और मोहिनी की सोचों में डूबा हुआ ही था कि तभी उसको अपने नाम का सम्बोधन सुनाई दिया,

'मोहित !'

'?'-
मोहित अचानक ही अपना नाम सुनकर चौंक गया. जिज्ञासा में उसने सामने देखा.
अगल-बगल में देखा. अपने पीछे देखा. मगर जब कोई नज़र नहीं आया तो वह एक
सशोपंज में फिर से निश्चिन्त हो गया. यही सोचकर कि शायद मन का भ्रम होगा.
अभी वह ऐसा सोच ही रहा था कि तभी उसे फिर से किसी ने पुकारा,

'मोहित !'

'?'- मोहित ने फिर से इधर-उधर देखा और अपने पीछे देखा.

'पीछे नहीं, सामने देखो.'

किसी
आवाज़ के सुनने पर उसने सामने देखा. देखा तो मारे खुशी के जैसे अपने ही
स्थान पर उछल सा पड़ा. उसके सामने मोहिनी खड़ी थी. वही रूप, वही लिबास और वही
एक देवी की प्रतिमा समान.

'मोहिनी तुम? तुम तो गायब हो चुकी थीं?' सहसा ही मोहित के मुख से निकला तो मोहिनी ने उसे आगे बोलने से रोका और कहा कि,

'गायब नहीं, मर चुकी हूँ.'

'मर चुकी हो? लेकिन तुम तो . . .' कहते हुए मोहित ने उसे स्पर्श करना चाहा, पर उसका हाथ जैसे हवा में ही लहरा गया.

'तुम्हारी
ये परेशानी, यह दुःख और हर समय मेरी खोज में पागलों समान तुम्हारा यह
भटकना, मुझ से देखा नहीं गया; इसलिए तुम्हारी खातिर किसी तरह तुमसे मिलने
और तुम्हें सब कुछ बताने आई हूँ.'

'मोहिनी, मैं कुछ समझा नहीं? तुम
मर चुकी हो, पर मुझसे बातें भी कर रही हो? मैं तुम्हें स्पर्श करता हूँ तो
जैसे गायब हो जाती हो? तुम मुझे दिखाई भी देती हो और हो भी नहीं? मुझे सब
विस्तार में बताओ, नहीं तो मैं पागल हो जाऊंगा?'

'जरुर बताऊंगी, इसी
लिए मैं अपनी दुनियां से बगैर इजाज़त लिए तुम्हारी इस दुनिया में फिर से आई
हूँ , ताकि तुम्हारे नांगलोई जाने के बाद मेरे साथ क्या घटित हुआ और किन
लोगों ने मुझे मारा, मेरी निर्ममता के साथ हत्या कर दी है. यह सब कुछ बताने
के पश्चात मैं बाद में वापस सदा के लिए चली जाऊंगी.' कहते-कहते मोहिनी की
आँखें फिर से छलक आईं तो मोहित से देखा नहीं गया और वह उसे सहारा देने के
लिए जैसे ही आगे बढ़ा तो तुरंत ही नीचे धड़ाम से गिर भी पड़ा. तब उसे नीचे
गिरे हुए देख मोहिनी अपने रुआंसे स्वर में बोली,

'मैंने कहा है कि मुझे स्पर्श करने की चेष्टा मत करो. मैं अब तुम्हें किसी भी प्रकार का भौतिक सहारा नहीं दे सकती हूँ.'

'?'- तब मोहित जैसे पहले से और भी अधिक परेशान होते हुए बोला,

'मोहिनी ! मुझसे अब और तुम्हारा यह दुःख देखा नहीं जाता है. मुझे सारा कुछ विस्तार में बताओ.'

'तो ठीक है. तुम अपने कमरे पर चलो. मैं भी वहीं आती हूँ. वहीं बैठ कर सारी बातें होंगी.'

     
इसी जिज्ञासा में मोहित अपने कमरे पर पहुंचा तो देखा कि मोहिनी वहां पर
उसका पहले ही से इंतज़ार कर रही थी. सारा कमरा यूँ प्रतीत होता था कि जैसे
उसे किसी ने बना और संवार रखा था.

'तुम चाय पीओगे?'

'चाय?'

'हां,
मैं बनाकर लाती हूँ.' मोहिनी उठ कर गई और दूसरे ही क्षण चाय का गर्म भाप
उड़ाता हुआ कांच का गिलास उसके सामने ही मेज पर रखा था. मोहित यह सब देख कर
और भी अधिक आश्चर्य से सफेद पड़ गया. अब तक भटकी हुई आत्माओं और भूत-प्रेतों
की कहानियाँ उसने केवल किताबों में पढ़ी थी और लोगों के मुख से सूनी भर
थीं; लेकिन आज तो वह यह सब अपनी आँखों से देख एहा था?

'तुम्हारे साथ मेरी मंगनी . . .'

मोहिनी
ने अपनी दास्ताँ सुनानी आरम्भ की तो चाय के गिलास की तरफ उसका बढ़ता हुआ
हाथ सहसा ही थम गया और वह बड़े ही गम्भीरता से मोहिनी की तरफ देखने लगा.

 .
. . होने के पश्चात मेरी नौकरी लग गई थी और इसलिए बहुत खुश थी कि मेरी
झोली में एक साथ दो खुशियाँ मेरे ईश्वर ने डाल दी थीं. एक मेरा प्यार तुम
और दूसरी सरकारी नौकरी. मैं इन्हीं सारी खुशियों को अपने आंचल में भरे हुए
अपने खुबसूरत विवाह के दिन की तारीखें गिन रही थी कि एक दिन अपने काम से
छुट्टी हो जाने के बाद जब मैं बस-स्टेंड की तरफ पैदल जा रही थी कि तभी एक
काली कार अचानक से मेरे पास आकर रुकी और उसमें से तीन लोग उतरे तथा
आनन-फानन उन्होंने मुझे घसीटते हुए कार में पटक दिया. मैंने चिल्लाना चाहा
तो उन लोगों ने मेरे मुहं में मेरी ही साड़ी का पल्लू ठूंस दिया. फिर मैंने
कार के अंदर देखा तो तुम्हारे चाचा जो मेरी मंगनी में भी आये थे उन्हें कार
के अंदर बैठे देख अचरज से भर गई. मैं बोल तो नहीं सकती थी पर सुन सकती थी.
तुम्हारे चाचा अपने फ़ोन पर किसी से कह रहे थे, 'भाई साहब, आधा काम हो चुका
है. अब बाकी का काम आधे घंटे में पूरा करके वापस आते हैं. उन्होंने मेरे
पिता जी का नाम लेते हुए यह भी कहा था कि, 'चमरा, अपनी बेटी हमारे घर में
ब्याह कर हमारे साथ बैठेगा? ना रहेगा बांस और ना ही बजेगी बांसुरी'

     
इसके बाद वे लोग मुझे एक सुनसान जगह में ले गए. वहां ले जाने से पहले
उन्होंने पहले मेरी ही साड़ी से मेरा गला दबाकर मेरी हत्या की. बाद में लाश
की शिनाख्त मिटाने के धेय्य से मेरा गला काटकर मेरे शरीर से अलग किया और
उसे तावी में चलती हुई कार से ही पुल से नीचे फेंक दिया. मेरे शरीर को ले
जाकर अंग्रेज गोरों के ईसाई कब्रिस्थान में कोने में बनी हुई सौ साल से भी
अधिक पुरानी कब्र जो किसी अंग्रेज स्त्री 'कैटी जौर्जियन,  10/10/1800 -
11/8/1890. की है में, उसे फिर से खोदकर बड़ी ही निर्ममता से दबा दिया है.'
कहते हुए मोहिनी फिर से रोने लगी. फिर रोते-रोते वह आगे बोली, ' मैं अभी तक
यह नहीं समझ पाई हूँ कि मेरी इस तरह निर्मम हत्या करने का ऐसा क्या कारण
था कि मेरे साथ-साथ मेरे सारे परिवार को भी इतनी सख्त सज़ा दी गई है. क्या
मेरा अपराध यही था कि, मैंने सिर्फ तुमसे, और तुमसे ही प्यार किया है? अगर
सच्चे मन से प्यार करने की यही सज़ा है तो तुम हरेक प्यार करनेवाली लड़की को
यही बताना कि कभी भी अपनी जाति के बाहर प्यार की डगर पर चलने की भूल न करे,
नहीं तो लोग एक दिन प्यार की धडकनें तो क्या ही, प्यार की वास्तविक
परिभाषा ही भूल जायेंगे. मैं अगर चाहूँ तो तुम्हारे सारे परिवार को एक
सेकिंड में तबाह कर सकती हूँ, मगर हम आत्माओं के संसार में इस मायावी पापी
संसार की शिक्षा नहीं दी जाती है. वहां पर तो केवल अपने अपराधियों को क्षमा
करने, शत्रुओं से अथाह प्रेम करने और एक गाल पर थप्पड़ लगने के पश्चात अपना
दूसरा गाल भी सामने कर देने जैसी शिक्षाएं ही दी जाती हैं. हम आत्माओं के
संसार के लोग जब नीचे धरती पर होते हुए पाप-कर्मों को देखते हैं तो किसी पर
हंसते नहीं है, इस दुनिया का उपहास नहीं उड़ाते हैं, बल्कि परेशान होते
हैं, रोते हैं, शोक करते हैं और यही मनाते हैं कि, 'हे, ईश्वर इस पापी
संसार के रहनेवालों को कोई तो सद्बुद्धि दे दे.' हम आत्माओं के संसार में
रहनेवालों की परेशानी यही है कि, हम बार-बार अपने संसार से आकर तुम लोगों
को यह सारी सूचनाएं नहीं दे सकते हैं. उसका कारण है कि, सबसे बड़ा एक ही
भगवान, एक ही ईश्वर जो वहां की राजगद्दी पर विराजमान है, उसका कहना है कि
संसार के लोगों के पास पहले ही से इस प्रकार की सारी सूचनाएं है, वे उन
किताबों को पढ़े, ऋषियों-मुनियों और शास्त्रों के जो ज्ञाता हैं उनकी सुनें
और विश्वास करते हुए अपने जीवन के सिद्धि-भरे कार्य करें.'

     
मोहिनी ने अपनी आंसुओं से भरी, बे-हद दर्दनाक, निर्मम हत्या की दुखांत
कहानी सुनाकर समाप्त की तो फिर अपना सिर अपने दोनों घुटनों में छिपाते हुए
फूट-फूटकर रो पड़ी. रोते हुए उसने इतना और भी कहा कि,

'तुम्हारे
परिवार के लोगों ने अपने सम्मान की खातिर मुझे चैन से जीने भी नहीं दिया.
ना तो सांसारिक जीवन में और ना ही मरने के बाद भी, मेरी आत्मा को दर-दर
भटकने के लिए तब तक के लिए छोड़ दिया है, जब तक कि मैं अपनी सांसारिक उम्र
पूरी नहीं कर लेती हूँ. तब तक मेरी आत्मा यूँ ही भटकती रहेगी.'

'?' -
मोहिनी की सारी कहानी जो उसके साथ किये गये अत्याचारों से भरी पड़ी थी, को
सुनकर मोहित की आँखों में द्वेष और प्रतिशोध के लाल डोरे तैरने लगे. वह
अपने स्थान से उठा. खड़ा हुआ और फिर से अपना सिर अपने दोनों हाथों से पकड़कर
वहीं बैठ गया. मोहिनी चुपचाप उसकी इस हरकत को देखती रही. तब सहसा ही मोहित
अचानक से उठा और वह मोहिनी की तरफ मुखातिब हुआ. बोला,      

'जिन
लोगों ने तुमको निशब्द किया है वे ही अब तुम्हारे साथ हुए इस जघन्य अपराध
को सबके सामने शब्द देंगे.  अगर मैं ऐसा नहीं कर सका तो फिर मैं उनको भी
निशब्द कर दूंगा.

'?' - मोहिनी ने उसको निहारा. एक पल गौर से देख.
उसके मन में भभकते हुए अंगारों की लाली को महसूस किया, फिर अचानक ही उसके
सामने आते हुए बोली,

'तुम अब ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जिसके कारण तुम्हारा अपना जीवन अंधकारमय हो जाए'

'मैं
ऐसा ही करूंगा.' यह कहते हुए मोहित अपनी मेज की दराज़ की तरफ बढ़ा. उसे खोल
कर देखा - उसके अंदर १७ राउंड की भरी हुई अमरीकन ग्लोक कम्पनी की बनी हुई
खूनी पिस्तौल उसके मन के अंदर दहकते हुए खूनी इरादों को भरपूर हवा दे रही
थी. उसको ये पिस्तौल उसके एक अमरीका में रहनेवाले घनिष्ट मित्र ने उपहार
में दी थी.  मोहित ने पिस्तौल को निकाला, उसकी मैगजीन को खोलकर देखा और फिर
उसको फिट करते हुए अपने पीठ के पीछे पेंट के अंदर खोंस लिया. फिर जैसे ही
वह आगे बढ़ा कि तभी उसको मोहिनी की एक आदेश भरी आवाज़ सुनाई दी,

'मैंने तुमको मना किया है कि तुम नही जाओगे.'

'तुम मुझको नहीं रोक सकोगी.'

'तुमको मेरी बात समझ में क्यों नहीं आती है. आखिरकार वे तुम्हारे पिता और रिश्तेदार हैं?'

'लेकिन वे तुम्हारे कातिल भी हैं.'

'हां हैं. लेकिन मैं तुम्हें यह काम नहीं करने दूंगी.'

'मोहिनी ! मैंने कहा है कि, मेरे रास्ते में मत आओ?'

'मैं तुमको किसी भी कीमत पर आगे नहीं बढ़ने दूंगी.'

'मैंने तुमसे प्यार किया है. जिन लोगों ने मेरे प्यार को दफ़न किया है, उन्हें मैं . . .'

'मोहित
! आखिर तुम समझते क्यों नहीं हो? जिस दुनिया में मैं अब हूँ वहां के
रीति-रिवाज़ दूसरे हैं. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो फिर मैं कहीं की भी नहीं
रहूंगी. मैं तुमसे फिर कभी भी नहीं मिल सकूंगी.'

'वह सब ठीक है. लेकिन तुम्हारे साथ जो अत्याचार हुआ है उसकी बजह से मेरे सारे शरीर में खून खोलता है. कैसे अपने आपको रोक लूं?'

'मैं रोकूंगी. तुम आगे नहीं बढ़ सकते.'

'कैसे
नहीं बढ़ने दोगी?' कहते हुये मोहित ने जैसे ही दरवाजा खोलने के लिए आगे
अपना हाथ बढ़ाना चाहा तुरंत ही दरवाज़ा अपनी पूरी शक्ति के साथ उसके मस्तिष्क
पर भाड़ से आकर लगा. इस प्रकार कि पल भर में ही मोहित का सारा संतुलन डगमगा
गया और वह चेतन्य-विहीन होकर नीचे गिर पड़ा. उसके दरवाज़ा खोलने से पहले ही
जैसे किसी ने दरवाज़ा पीछे से बड़े ज़ोरों से खोलते हुए उसके सिर पर दे मारा
था.

                        * * *
          फिर एक लम्बी
बेहोशी के बाद जब उसकी चेतना वापस आई तो रात हो चुकी थी. वह अपने बिस्तर पर
लेटा हुआ था. उसके सिर पर पट्टी बंधी हुई थी और मस्तिष्क मारे दर्द के
जैसे फटा जाता था. उसके पास ही उसके मकान मालिक का दसवीं कक्षा में
पढ़नेवाला लड़का बैठा हुआ था. उसको देखते हुए मोहित ने उससे पूछा कि,

'तुम ! तुम कैसे बैठे हुए हो?'

'पिताजी ने बैठाया है और कहा है मैं आपको देखता रहूँ, जब तक कि आपको होश न आ जाए.'

'?' - मोहित कुछ भी न कह सका तो उस लड़के ने आगे पूछा,

'आपको यह चोट कैसे लगी थी? कहीं गिर पड़े थे क्या?'

'?' - मोहित कुछ कहता, उससे पहले ही मकान मालिक भी आ गये. आते ही बोले,

'अब कैसी तबियत है आपकी?'

'मैं ठीक हूँ. बस सिर में दर्द बाकी है.'

'वह
एक लड़की मेरे पास आई थी और उसी ने खबर दी थी कि आपके चोट लगी है और आप
अपने कमरे में बेहोश पड़े हैं.' मकान मालिक ने कहा तो मोहित कुछ भी नहीं
बोला. नहीं बोला तो मकान मालिक ने उसे भेदभरी दृष्ट से देखा और आगे उससे
पूछा,

'आप जानते हैं उसे? कौन है वह और कहाँ से आई थी? कभी देखा नहीं उसे आपके साथ?'

'मंगेतर है मेरी.'

'मंगेतर ? आपने कभी इसका ज़िक्र नहीं किया? रहती कहाँ है वह?'

'आसमान में रहती है वह?'

'आसमान में . . .?' मकान मालिक के मस्तिष्क के बल गहरे हो गये. वे आश्चर्य से मोहित को निहारने लगे.

'हूँ.
. .? लगता है कि आपके चोट कुछ ज्यादा ही गहरी लगी है. डाक्टर को दिखाना ही
पड़ेगा आपको.' कहते हुए मकान मालिक अपने लड़के साथ बाहर निकल गये. उनके चले
जाने के बाद मोहित को मोहिनी की आवाज़ सुनाई दी. वह बोली,

'अब मुझे भी वापस जाना होगा. कल फिर आऊँगी.'

'चली जाना, लेकिन एक बात तो बताती जाओ?'

'पूछो.'

'वह दरवाज़ा तुमने मारा था मेरे सिर पर?'

'हां. तुम्हे रोकने का मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था.'

'लेकिन, इतने ज़ोरों से? इतनी ताकत कहाँ से आ गई तम्हारे अंदर?'

'मैं अकेली नहीं थी. मेरी सहेलियाँ भी थी, मेरे साथ.'

'तुम्हारी सहेलियाँ ?'

'हां, मेरी सहेलियाँ. वे अभी भी मेरे साथ हैं.'

'तुम्हारे साथ? कहाँ ?'

'यहीं, इसी कमरे में. दो मेरे पास बैठी हैं. दो उन कुर्सियों पर. तीन मेज के ऊपर और बाकी यहीं खड़ी हैं.'

'?' - मोहित आश्चर्य से कमरे में चारों तरफ देखने लगा तो मोहिनी बोली,

'तुम उनमें से किसी को भी नहीं देख पाओगे, क्योंकि हम जिन्हें चाहते हैं उन्हीं को दिख जाने की इजाजत देते हैं.'

'इसका मतलब है कि, पूरा गेंग ही अपने साथ लेकर चलती हो?'

'नहीं
ऐसा नहीं है. ये सब भी मेरी ही तरह संसार से प्रताणित होकर आई हैं. इनमें
से बहुतों के साथ गेंग रेप हुआ और बाद में किसी को जला दिया गया, किसी की
जबरन इज्ज़त लूटने के बाद बे-रहमी से गला रेत दिया गया. किसी को दहेज के
लालच में उसकी सास ने जला दिया था, तो एक ऐसी भी है कि जिसको धोखे से
फिल्मों में काम देने का लालच देकर कोठे पर बेच दिया गया और वहां पर ये
अपनी मर्यादा बचाने की खातिर कोठे से नीचे सड़क पर कूदकर मर गई थी.'

'?'- मोहित सुनकर ही दंग रह गया.

तब बाद में मोहिनी ने जाने से पहले उससे कहा कि,

'देखो,
अब मैं जाती हूँ. कल फिर आऊँगी. मेरे पीछे अब कोई भी ऐसा-वैसा कार्य मत कर
बैठना. मेरा मतलब क़ानून अपने हाथ में लेने की कोशिश मत करना.'

'तो फिर क्या करूँ मैं? तुम्हारे साथ इतना-इतना बुरा हुआ और मैं कायरों समान बैठा ही रहूँ?'

'मेरा कहने का आशय यह भी नहीं है.'

'तो फिर क्या कहना चाहती हो?'

'यही
कि, कार्यवाही करो. जरुर ही करो, लेकिन क़ानून के दायरे में. पहले जाकर
पुलिस में रिपोर्ट करो. फिर मेरा वास्ता देकर गोरों के कब्रिस्थान में जाकर
उस कब्र में से मेरी लाश को निकलवाओ. अब तक तो लाश सड़-गल चुकी होगी. केवल
मेरी हड्डियां हीं तुम्हें मिलेंगी. मेरी पहचान के लिए मेरा कोई भी अपना
कपड़ा उन्होंने नहीं छोड़ा था. केवल एक सफेद चादर में मुझे लपेट भर दिया था.
इसलिए अपनी शिनाख्त के लिए मैं ऐसी बात तुम्हें बताये देती हूँ जो तुमको भी
नहीं मालुम है. बचपन में ही मेरे दायें हाथ के अंगूठे में बबूल का काँटा
काफी गहराई तक घुस गया था. सो उसे निकालने के लिए डाक्टर को मेरा नाख़ून
निकालना पड़ गया था. उस नाख़ून को छिपाने के लिए मैं उस पर लाली लगा लेती थी.
इसलिए उसे अगर तुम ध्यान से देखोगे तो तुम्हें वहां पर नाखून नहीं
मिलेगा.'

      दूसरे दिन मोहिनी फिर से आई. मोहित से मिली. बैठ कर
रोई, अपनी बातें कीं, उसे खूब देर तक समझाया और फिर अपने आंसू पोंछ कर जब
जाने लगी तो मोहित ने उससे पूछा. वह बोला कि,

'फिर कब आओगी अब ?'

'मैं ऐसे बार-बार, हमेशा नहीं आ सकती हूँ तुम्हारे पास.' मोहिनी ने अपनी विवशता बतलाई तो मोहित बड़े ही उदास स्वर में बोला,

'तुम
मर चुकी हो, मुझे ज़रा भी यकीन नहीं होता है. तुम अगर मुझसे यूँ ही मिलती
रही तो मैं वायदा करता हूँ कि, अपना सारा जीवन इसी प्रकार से काट लूंगा.'

'मैं
जानती हूँ. मगर मैं हर बार ऐसे धरती पर नहीं आ सकती हूँ. बहुत तकलीफ होती
है मुझे तुम्हारे पास तक आने में. तुम क्या जानो कि, मुझे तुम्हारे पास तक
आने में मुझको दुष्टों के मुखिया और उसकी दुष्ट आत्माओं का सहारा लेना पड़ता
है. इसके बदले में मुझे दुष्टों के मुखिया के वे सारे काम भी करने पड़ जाते
हैं जिन्हें मैं कभी भी करना नहीं चाहती हूँ. पर हां, तुम यहाँ धरती पर
अपना जीवन व्यतीत करो. मतलब मेरा कि, अपनी बाकायदा उम्र पूरी करो. तब तक
मेरी भी धरती के जीवन की उम्र पूरी हो चुकी होगी. उसके पश्चात फिर हमें कोई
भी अलग नहीं कर सकेगा. इतना और बता दूँ कि, यदि तुमने अपना विवाह कर लिया
तो फिर कायदे से तुम अपनी होनेवाली पत्नि के ही रहोगे और मेरा-तुम्हारा कोई
भी रिश्ता कभी नहीं रहेगा. मैं तुम्हें बाध्य नहीं कर रही हूँ. तुम सदा
खुश रहो. फैसला तुम्हारे ही हाथ में है. तुमसे कभी कोई शिकायत भी नहीं
करूंगी. यही सोच कर संतुष्टि कर लूंगी कि, संसार में मेरा-तुम्हारा मिलन
नहीं था और मरने के बाद भी नहीं है.'

     . . .सोचते हुए मोहित की
आँखों से मोहिनी की मृत्यु के दुःख और विषाद के आंसू जैसे  किसी बे-बस
दुखिया की प्यार की आरती में मारी गई ठोकर से गिरे हुए पुष्पों समान
टूट-टूटकर नीचे भूमि में गिर पड़े. उससे जब नहीं रहा गया तो वह फूट-फूटकर रो
पड़ा. कितना बुरा उसके असीम प्यार का हश्र हुआ था. उसके अपनों ही ने, अपने
ही रक्त के प्यार की आस्था और  किसी भी रिश्ते की गरिमा न रखते हुए उसके
प्यार में न केवल लात ही मारी थी, बल्कि उसे सदा-सदा के लिए दफनाकर अपने
चरित्र पर एक ऐसा कलंक भी लगा लिया था, कि जिसे सदियों तक भी पश्चाताप की
आरती उतारने के बाद भी मिटाया नहीं जा सकेगा. ये था उसके पवित्र प्यार का
सिला ! उसके अरमानों की लाश पर उसके परिवार की तरफ से दिया हुआ उपहार ? एक
अनुसूचित जाति की निहायत ही भोली और निर्दोष, शालीन बाला के प्यार की कहानी
का ऐसा दुखद अंत कि, जिसके प्रेम की किताब जब भी कोई खोलेगा तो यह नहीं
समझ पायेगा कि, दुःख और विषाद के रक्त में डूबे हुए पृष्ठ आ रहे हैं या जा
रहे हैं? मोहित और मोहित का परिवार; दोनों ही ने मोहिनी को एक प्रकार से
हमेशा के लिए खो दिया था- एक ने अपने प्यार की पराकाष्ठा की ऊंचाइयों पर
पहुंचकर तो दूसरे ने बिरादरी की शान में प्रेम की बेकद्री करते हुए. 

     
संध्या डूब चुकी थी. रात्रि का धुंआ गहराने लगा था. नदी के शांत जल में
आनेवाली रात की स्याही जमा होने लगी थी. मछुआरे न जाने कभी के अपनी डोर
समेटकर नदारद हो चुके थे और तावी के किनारे खड़े हुए वृक्षों पर अभी भी बहुत
से पक्षी अपने पंख फड़-फड़ाते हुए अपना बसेरा ढूँढने में व्यस्त थे. मोहित
ने चुपचाप अपने चारों तरफ देखा, फिर धीरे से उठ कर अपने बोझिल कदमों के
कच्ची सड़क पर पड़ी हुई रेत पर निशान छोड़ता हुआ आगे बढ़ने लगा. वे निशान जो अब
सदा के लिए साथ चलने वाली मोहिनी की सेंडिलों के निशानों के मोहताज़ हो
चुके थे. वह जानता था कि उसने मोहिनी को अब सदा-सदा के लिए खो दिया है -
चाहे अपनी लापरवाहियों की बजह से और चाहे किस्मत की बिगड़ी हुई लकीरों के
कारण.
                           ** *
      मोहिनी के चले जाने के
पश्चात, मोहित काफी दिनों तक यूँ ही उदास और अपने-आप में उखडा-उखडा सा बना
रहा. मोहिनी की हत्या और उसके अपार कष्टमयी मृत्यु के बारे में सोच-सोचकर
वह एक बड़े ही सशोपंज में फंस चुका था. उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था
कि उसके पिता और रिश्तेदार ही अपनी शान, अपनी मर्यादा और बिरादरी में ज़रा
सी भी खोट न आ सकने के कारण अपने बेटे की ही खुशियों का गला बे-दर्दी से
काट देंगे. इतना ही नहीं उसे एक झांसे में रखते हुए पहले वे मोहिनी से उसका
रिश्ता तय करेंगे, बाकायदा उसकी कुडली मिलायेंगे, विवाह की तारीख स्थापित
करेंगे और अवसर पाकर मोहिनी को बहुत खुबसूरत ढंग से उसके रास्ते से हटा भी
देंगे. उसके लिए नांगलोई में 'बिजनिस' खुलवा देने का भी उनका शायद यही मकसद
भी था. अपने इन्हीं ख्यालों और विचारों के साथ वह एक दिन स्थानीय पुलिस
थाने में जा पहुंचा और अपनी सारी दास्तान कह सुनाई. मोहिनी की मृत्यु और
उसके अचानक गायब हो जाने की प्राथमिक रिपोर्ट लिखवानी चाही और जांच के तौर
पर कब्र को खुदवाना चाहा तो थाने वालों ने यह रिपोर्ट लिखने से ही मना कर
दिया. उससे कहा कि, यह मामला बहुत पुराना हो चुका है. मगर वास्तविकता में
थानेवालों का यह तर्क सचमुच में नहीं था. मोहित के पिता का दबदबा ही इसकदर
था कि पुलिसवाले भी बगैर उसके पिता की मर्जी के तनिक भी आगे नहीं बढ़ सकते
थे. स्थानीय थाने से निराशा मिलने के बाद मोहित किसी प्रकार सीधे कोर्ट से
ही जब कब्र खुवाकर देखने और मोहिनी की मृत्यु की पुष्टि होने का आदेश ले
आया तो उसके पिता और अन्य रिश्तेदारों के जैसे हाथों के तोते ही उड़ गए।
  * *  *                     
             
फिर एक दिन, पुलिस और मजिस्ट्रेट की निगरानी में गोरों के कब्रिस्थान की
वह पुरानी कब्र फिर से तीसरी बार खोदी गई. उसके अन्दर से मोहिनी की पूर्ण
रूप से क्षत-विक्षित लाश निकाली गई. सफेद चादर में लिपटी हुई मात्र मानव
कंकाल ही उसके अंदर मिला था. शनाख्त के तौर पर मोहित ने मोहिनी के दाहिने
हाथ के अंगूठे में नाख़ून न होने की बात बताई तो उसका कहना सही निकला.
मोहिनी के युवा शरीर की दुर्दशा और अपने प्यार का इतना बुरा हश्र देख कर
मोहित उन्हीं हड्डियों से लिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ा. उसके पिता ने ज़रा भी
अपने बेटे के प्यार की हसरतों की कदर नहीं की थी और उस निर्दोष लड़की की जान
अमानवीय तौर पर ली थी जो धर्म, समाज और क़ानून, तीनों ही तरह से उनके बेटे
की होनेवाली पत्नि और उनके अपने खानदान की बहु थी.

      लेकिन
भारतीय कोर्ट और कचेहरी की प्रक्रिया बहुत लम्बी होती है. एक से एक
दांव-पेंच होते हैं. पहले सेशन कोर्ट, हाई कोर्ट फिर सुप्रीम कोर्ट. उसके
बाद भी अगर दोषी को सज़ा मिली है तो उसको भी जमीनी तौर पर अम्ल में लाने के
लिए वर्षों लग सकते हैं. जिन लोगों पर मोहित अपनी प्रेयसी और मंगेतर के
कत्ल का इलज़ाम साबित कर देना चाहता था, उन्हीं लोगों ने स्वयं उस पर ही
मोहिनी के कत्ल का आरोप लगाकर उसे ही जेल में ठूंस दिया. और बात भी सही थी,
गवाहों के रूप में खड़े होने वाले लोग जीते-जागते हाड-मॉस के पुतले होते
हैं. मरे हुए लोगों की भटकी और परेशान आत्माएं कैसे अपनी गवाही दे सकती
हैं? मोहिनी के साथ जो कुछ हुआ था, उसे वह जानती थी. उसके दर्द को अपना
दर्द समझते हुए मोहित भी जान गया था, मगर कोई भी तीसरा गवाह ऐसा नहीं था जो
मोहिनी की बात की पुष्टि कर सकता हो. मोहित अपनी यह बात साबित ही नहीं कर
सका कि स्वयं मोहिनी ने ही उसको अपनी दर्दनाक मौत के बारे में आकर बताया है
और वह अभी भी उसकी भटकी हुई आत्मा से मिलता है और बातें किया करता है.
                -शेष दूसरी बार. 

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रचनाएँ
नि: शब्द के शब्द ( हिंदी उपन्यास)
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*** अगर आप विश्वास करते हैं कि, आत्माएं होती हैं और वे भटकती हैं तो यह कहानी आपको बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करेगी. यदि आप भटकी हुई आत्माओं और बे-बस, मजबूर और अपने प्यार की तलाश में परेशान आत्माओं पर विश्वास नहीं करते हैं तो लेखक और प्रकाशक के पास आपके लिए किसी भी प्रकार का कोई भी संतुष्ट उत्तर नहीं है.
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