*सांता क्लॉज*
बासठ बसन्त देख चुके मनहर शर्मा के प्राण लगभग चार साल के पोते विशू के प्यारे मुखड़े और मीठी बातों में बसते थे। उनके लड़के विनोद का पुत्र है विशू। अब स्कूल जाने लगा है।
जैसा कि उम्र से ज़ाहिर है, मनहर जी अपने समय के पुराने चावल हैं। औसत किन्तु हृष्ट-पुष्ट शरीर, चौड़ा ललाट और उस पर लाल रंग का तिलक उनकी भव्यता और कुलीनता की अलग से उद्घोषणा करता मालूम पड़ता है। सनातन धर्म में कट्टरता की हद तक श्रद्धा रखते हैं और मजाल है कि बिना स्नान-ध्यान के पानी की बूँद तक मुँह में चली जाए। प्रतिदिन स्नान के उपरांत उच्च स्वर में रामचरितमानस का पाठ और शंख-वादन उनकी दिनचर्या में ख़ून की तरह शामिल है।
कचहरी की नौकरी से दो साल पहले ही रिटायर हुए हैं शर्मा जी। पत्नी का कई वर्ष पहले देहांत हो चुका है और मनहर जी बेटे विनोद, बहू सीमा और पोते विशू के साथ आनन्दपूर्वक स्वस्थ जीवन बिता रहे थे।
दिसम्बर का अंतिम सप्ताह चल रहा था। कड़ाके की सर्दी के बावजूद स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर मनहर जी रोज़ की तरह मॉर्निंग वॉक से जब वापस आए, तब तक बहू जग चुकी थी और आते ही उन्हें गरमा गरम चाय का प्याला मिला तो मन गद्गद हो गया शर्मा जी का। मन ही मन बोले 'जीती रहो बिटिया' "वे दोनों आलसी के पेड़ अभी तक सो ही रहे हैं क्या बहू?"
"वो नहा रहे हैं बाबूजी; विशू भी उठ गया है पर तबीयत कुछ ढीली है उसकी।" बहू ने किचन से बाहर आकर बताया। "हैं! तबीयत ढीली है।" कहते, आधी पी हुई चाय के कप को टेबल पर रखकर दन्न से पोते के पास पहुँचे तो देखा कि विशू कुछ सुस्त-सा बिस्तर पर पड़ा है। "अरे भइ बब्बर शेर! ऐसे क्यूँ पड़े हो भाई, हाथी से डर गये हो क्या?"अपने हाव-भाव और हाथों के प्रदर्शन से शर्मा जी ने वह दृश्य उपस्थित किया कि नन्हे बालक ने अपनी उज्ज्वल दंतपंक्ति दिखा दी। "तुम बुक़ूफ़ हो दादाजी, हाथी दादा तो मेरा फ़्रेण्ड है, मैं तो सपने में अगजर से डर गया था।" बालक उनकी गोद में चढ़ आया और अपने नन्हे हाथों में उनका चेहरा पकड़कर बोला।
बालक की हँसी देखकर शर्मा जी खिल उठे, बोले- "अजगर से भी कोई डरता है भला, उस बेचारे के तो ज़हर भी नहीं होता और वो तो तुमसे भी बड़ा आलसी होता है बुद्धूराम। और हाँ अजगर होता है शैतान कहीं के; अगजर नहीं" शर्मा जी का हाव-भाव देखकर बालक खिलखिलाकर हँसने लगा और शायद सपने में देखे अजगर का भय उसके मन से जाता रहा।
तभी थोड़ा गम्भीर होकर विशू ने पूछा- "दादू! इस बार सांताक्लॉज मेरे लिए भी गिफ़्ट लाएँगे न?"
जीवन भर पश्चिमी सभ्यता और उसके प्रतीकों का विरोध करते रहे शर्मा जी बालक का प्रश्न सुनकर चौंक-से गये, बोले- "हैं! सांताक्लाज, अरे नहीं भाई वो तो ईसाइयों के यहाँ तोहफ़े देते हैं।"
क्रमशः