यह किताब एक मन की व्यथा को अल्फ़ाज़ों के साथ पिरोती हुई हमारे जीवन की वास्तविक परिस्थिति को प्रदर्शित करती हुई एक अनमोल रचना हैं।
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कभी मैं भी था अकेला, गुमसुम उदास सा... रहा था कभी आखिर मैं भी,कभी बिंदास सा... क्या पता और क्यों,लोग दूर होते जा रहें थे... रिश्तें भी अब तो दोस्तों, हाथों से खोते जा रहें थे... जज्बातों में भी मु
दिल-ए-दर्द किसको बताये आजकल, कोई सुनता नहीं हैं... किसी को देखकर युं नैन-ए-कारवां ख्वाब बुनता नहीं हैं... सुनाना किसी को दिल-ए-हाल अब पहले सा नहीं रहा हैं... सोचते-सोचते दिल और कहीं, और दिमाग कही
हिम्मत ना होती थी कि कर पाऊंगा कभी मन की बात... इसी कशमकश में यारों सोचता रहता था दिन और रात... जब से दुनियां रो रोकर पुछती है और हंसकर बता देती हैं... जज्बातों ही जज्बातों में आखिर इंसान को सता