ॐ नम: शिवाय।
स्वामी राम सुखदास जी के सानिध्य से-
सेठ अनिंद्य दयाल धनवान होने के साथ ही बहुत विलासी भी थे। हर समय उनके मन में भोग-विलास और सुरा-सुंदरी के विचार ही छाए रहते थे। वह खुद भी इन विचारों से त्रस्त थे, पर आदत से लाचार होने की वजह से उसे छोड़ना उनके लिए कठिन था।
एक दिन अचानक संत तुलसी से उनका संपर्क हुआ। वह उनके पास पहुंचे और उनसे अपने अशुभ विचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। संत ने कहा, अच्छा, पहले अपना हाथ दिखाओ। सेठ ने हाथ आगे बढ़ाया। हाथ देखकर संत बोले, बुरे विचारों से मैं तुम्हारा पिंड तो छुड़ा देता, पर तुम्हारे पास समय बहुत ही कम है। आज से ठीक एक माह बाद तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। इतने कम समय में तुम्हें कुत्सित विचारों से निजात कैसे दिला सकता हूं? और फिर तुम्हें भी तो अपनी तैयारियां करनी होंगी।
यह सुनकर सेठ चिंता में डूब गए। उन्होंने सोचा, अब क्या होगा? वैसे चलो, समय रहते यह मालूम तो हुआ कि मेरे पास समय कम है। वह वापस लौटकर घर तथा व्यवसाय को व्यवस्थित करने में लग गए। वह परलोक के लिए पुण्य अर्जित करने की योजनाएं भी बनाने लगे और सभी से अच्छा व्यवहार करने लगे।
जब उनकी नियत मृत्यु में एक दिन शेष रह गया, तो वह फिर संत के पास पहुंचे। संत ने उन्हें देखते ही कहा, बड़े शांत नजर आ रहे हो। अच्छा बताओ, क्या इस अवधि में सुरा-सुंदरी की योजना बनी? सेठ ने उत्तर दिया, महाराज, जब मृत्यु समक्ष हो, तो विलास कैसा?
यह सुनकर संत हंस पड़े। उन्होंने कहा, वत्स, अशुभ चिंतन से दूर रहने का एकमात्र उपाय है कि यह चिंतन सदैव सम्मुख रखना चाहिए कि मृत्यु निश्चित है। और उसी ध्येय से प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना चाहिए।