प्रेम का रसायन शाश्त्र मैंने बचपन में ही रट लिया था .कभी कभी तो प्रेम कोलाहल का कोमल आघात, अत्यंत नाजुक स्वप्न से वास्तविकता की और चल पारी है. प्रेम की प्रातः बेला के प्रकाश की रंग छटाएं भी हमारे प्रेम रूपी ईश्वर के में डूबा जा रहा था. मेरा प्रेम निर्गुण और अचिन्त्य प्रतीति होता है. मैं प्रेम में ही प्रपत्ति और शरणागति के पथ पर अग्रसर हो रही हूँ.
मैंने प्रेमातुर विचारों में अस्पष्टता का लवलेश भी नहीं पाया. और न ही स्वप्निलता का कोई अंश. मैंने प्रेम को अपने सामर्थ्य से मुक्त रूप से अभिव्यक्त किया है. मैं प्रेम लवरूप स्पर्श पाकर रोमांचित हो जाता हूँ. ये प्रेम की शक्ति से परिपूर्ण होती है. जिसके पूरा शरीर सूक्ष्म विद्युत् धरा से अभिभूत हो जाती है. इसमें परमानन्द की प्राप्ति की झलकियां महसूस होती है.
जब प्रेम रस सेअभिभूत होता हूँ तो मेरी अंतर्जात विनम्रता और अगाध ज्ञान का प्रताप विस्मय विभोर कर देती है. प्रेम में मई सम्पूर्ण समर्पण की भावना को जागृत करना ही उचित समझती हूँ. मैं वाक्यालांकर नहीं अपितु अपनी भावना को पन्नो पर स्पष्ट करती हूँ. प्रेमातुर ऑंखें आत्मतृप्ति के भाव से चमक रही है. वो मेरे प्रेम पंख को समेटने में लीन है. प्रेम को कल्पना जगत मात्र तक ही सिमित नहीं किया जा सकता है. मैं स्वयं प्रेम प्रधान प्रकृति की मनुष्य हूँ. यह हमारे ग्रीद्य की सच्चाई के उद्गार को करती है. प्रेम क्रिया ही मेरी चिंतामणि है. प्रेम की व्याकुलता मैं छुपा नहीं सकती हूँ. प्रेम, जीवन में अन्वेषण की परिसीमा को तय नहीं करता है. जब भी प्रेम तुल्य स्पर्शमात्र मेरे तन मन को घेर लेती है तभी ज्योति मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व पर छ जाती है. मेरे चक्षु करोड़ों सूर्य की भांति एक साथ दीप्तमान हो जाते हैं. एक अवर्णनीय आनंद की बढ़ ने मेरे हृदय को अंतरतम कोने तक अभिभूत क्र है. आंतरिक स्वर्ग मुझे प्रेमाश्रय से ही प्राप्त होती है. प्रेम में ही मेरी विस्तार मर्त्य देह की सीमाओं से प्रे हो जाती है. प्रेम के ब्रम्हसागर में मैं तैरती हुई सर्व्व्याप्त परमानन्द की शाश्वत किरणों में विलीन हो जाती हूँ.
समस्त आशाएं एवं कल्पनाओं से पुरे आनंद देनेवाला प्रेम परमानन्द को प्राप्त करता है. मुझे प्रेम साधना से ही चेतना की समुचित रूप से द्वारा ही सर्वव्यापकता के मुक्तिदायी आघात को सहन करने की क्षमता प्राप्त होती है. वास्तविक प्रेम में दुःख का कोई स्थान नहीं होता है. प्रेम सकारात्मक और सात्विक होता है. नकारात्मक प्रेम, का तातपर्य वासना से है. जो प्रेम नहीं है. प्रेम शरीर से नहीं मनुष्य के आंतरिक आत्मा से होनी चाहिए प्रेम मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में.
क्रमशः ...............................................................