"नई माँ"
अभी पन्द्रह दिन पहले अबीर ने बताया कि,
"पापा नही रहे दीदी।"
"हैलो, अनुभव जल्दी घर आ जाओ, अभी अबीर का फोन आया था। मेरे पापा, मेरे पापा अब इस दुनियाँ में नही....।"
आगे के शब्द मेरी हिचकियों में गुम गये।
अनुभव ने कहा तुम तैयार रहो मैं कैब लेकर ही आ रहा हूँ, नौ बजे ट्रेन है, अभी छह बज रहा है मिल जायेगी।
अनुभव ने टीटी को अतिरिक्त पैसे देकर दो सीट कन्फर्म करवाई। एक में दोनों बच्चे और एक में मैं आराम से सफर कट जायेगा, सुबह तो पहुँच ही जाना है।
ये तेरहवीं में आने का प्रॉमिस कर के चले गये।
अबीर का दोस्त मुझे स्टेशन लेने आया। जब घर गई तो मुझे देखते ही 'नई माँ' जिसे मैंने कभी स्वीकार नहीं किया था, मुझसे लिपट गई, उस समय मैं भी उनको भींचकर जोर-जोर से रोने लगी। दो-चार दिन तो बहुत रिश्तेदार थे, उसके बाद मैने देखा कि माँ अब भी मेरा ध्यान वैसे ही रख रहीं थी जैसा कि पच्चीस साल पहले रखा करती थीं। पर अब भी मन में यही था कि दिखावा होगा, कुछ रिश्तेदार बचे जो हैं। तेरहवीं तक सभी जा चुके थे। तेरहवीं के दो दिन बाद मेरे लौटने का रिजर्वेशन था।
मैने देखा कि, नईमाँ पन्नी की कई पोटलियाँ और प्लास्टिक के डिब्बे एक बैग में रख रही है और बीच-बीच में साड़ी के पल्लू से आँखे पोंछती जा रही हैं। मैरी आठ वर्षीय बेटी ने उत्सुकतावश पूछ लिया,
"नानी ये क्या है?"
"अरे जब बिटिया विदा होवे है तो ये सब दिया जाबे है, तू ना समझेगी अभी छोटी है।"
आते समय पड़ोस की भाभी को बुलाकर टीका, महावर और गाँठ बाँधने की रस्म करवाई।
मेरे और इनके पैर छुये, बच्चों पर हजारों चुंबन और आशीष लुटाये। जाते समय जब मुझसे भेंट करने आयीं, तो उनका चेहरा देखकर प्रेम की ऐसी हिलोर आई कि पूर्वाग्रहों के समस्त बाँध टूट गये और मैं ""माँ"" कहकर उनसे लिपट गई। पता नही क्यों उन्हें छोड़ने का मन ही नही हो रहा था, और ना ही मायका। अब पता चला कितने दिनों तक में इस माँ के प्रेम रुपी अमृत से वंचित रही।
पर आना तो था ही, माँ से और अपने आप से जल्दी ही आने का वादा करके चल पड़ी स्टेशन की ओर। दूर कहीं एक गीत अवचेतन में गूँज रहा था,
"बाबुल मोरा नैहर छूटा जाये......।"
© पूजा अग्निहोत्री