वही जो रोज हो रहा है। आँखें जो देख पाती हैं और जो नहीं भी देख पाती। मन के अंदर और बाहर के सारे उपक्रम।
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रविवार ऐसे निकल जाता है जैसे किसी रेलवे-फाटक पर खड़े बाईक वाले के सामने से निकल जाती है ट्रेन। देखते ही देखते ओझल। शनिवार की शाम सुकून देती लगती है और रविवार की चिंता देती। शनिवार की शाम सजाये जाते है