समान नागरिक संहिता के सैद्धांतिक व व्यवहारिक पक्ष पर जाने से पहले हमें इसका अर्थ अच्छे से समझना होगा।
यह भारतीय संविधान के भाग- के अनुच्छेद 44 का विषय है।
जो राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से सम्बंधित है।
इसका आशय एक देश के नागरिकों के लिए समान विधि बनाने से है। जिसमें संहिता का अर्थ विभिन्न कानूनों का समुच्चय होता है। अर्थात बिखरे हुए या मौखिक बनाये गए नियमों को लिखित रूप देना। संक्षेप में समान जन के लिए समान कानून।
नागरिक मामले दो प्रकार के होते हैं -1 तात्विक 2 प्रक्रियागत।
समान नागरिक संहिता अधिकांशतः प्रक्रियागत मामलों का विषय है।
अब बात आती है समानता की,जब देश समान है तो अलग अलग क़ानून क्यों?
"जब नागरिक समान तो विधि समान क्यों नहीं,
एक अखण्ड देश है तो एक विधान क्यों नहीं।"
उच्चतम और उच्च न्यायालय दोनों निर्देश दे चुके हैं सरकार को समान नागरिक संहिता लाने के लिए।
शाहबानो के प्रसिद्ध मामले में ये बात उठी।
सैद्धांतिक पक्ष- सैद्धांतिक और नैतिक पक्ष को देखा जाए तो हाँ जरूर समान जन के लिए समान कानून होना चाहिए।और यह तो पहले से गोवा राज्य में लागू है इसका उदाहरण उच्चतम न्यायालय भी दे चुका है। और यदि एक देश में प्रक्रियागत मामलों में विधान में विविधता है तो एकता व समानता की बातें बेमानी हैं।
व्यवहारिक पक्ष- व्यवहार में भारत में इसे लागू करना थोड़ा जटिल काम है क्योंकि भारत विभिन्नताओं का देश है जहाँ अलग अलग धर्म, जाति,सम्प्रदाय के लोग रहते हैं और उनकी मान्यताएँ व प्रथाएँ अलग-अलग है।
निष्कर्ष -सामान नागरिक संहिता पर कानून बनाने से पहले समाज से इसकी वृहद चर्चा होनी चाहिए। कुल मिलाकर कानून ऐसा हो जिसमें किसी भी पक्ष के साथ पक्षपात न हो।
सभी की भावनाओं और मान्यताओं का रखकर ध्यान,
निकाला जाए कुछ ऐसा समाधान,
जिससे सारे कानून हो समान,
जो भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बाँधने वाला हो विधान।