वैसे तो साथी लच्छू परंपराओं के विरोध की परंपरा से आते हैं, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि भारतभूमि मोक्षदायी है। जब वे वैचारिक परंपरा के अंतरगत होते हैं तब पूरी निष्ठा से होते हैं और धर्म को अलग रखते हैं। ईश्वर को मानने या नहीं मानने के संबंध में लच्छू साथी का साफ कहना है कि दिन में दो-तीन घंटे मान सकते हैं, इसमें कोई हर्ज नहीं है। वे सैद्धान्तिक रूप से निजी संपत्ती और निजी ईश्वर दोनों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि साथी जब ईश्वर में अपना हिस्सा मागेंगे तो एक राम नहीं, एक कृष्ण नहीं पूरे तैंतीस करोड़ मागेंगे। उनके एक सवाल का जवाब अभी तक किसीने नहीं दिया है कि धार्मिक ग्रंथों को लाल झंडे यानी लाल कपड़े में क्यों बांधा जाता है ? आज जब मोक्ष की इच्छा से साथियों सहित वे कुंभ स्नान करने आए हैं तो लाल गमछा सिर पर बांधे हुए हैं।
उज्ज्वल सनातन परंपरा का सम्मान रखते हुए साथियों में तय हुआ कि पहले नागा कामरेड बिना अपनी पहचान उजागर किए पूरे उत्साह से नहाएंगे। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि भगवान उनसे डरें नहीं। हालांकि सबको पता है कि कुंभकाल में भगवान प्रायः नंगों से डरते नहीं हैं यदि वे बाकायदा घोषित भक्त हों। कामरेड चूंकि अधोषित भक्त होते हैं इसलिए वे और भगवान प्रायः संदेह की डोरी से बार बार बंधते-छूटते रहते हैं। विरोध करते हुए और नहीं मानते हुए भक्त हो जाना प्रगतिशीलता है जो साधना परंपरा में एक नया मार्ग है। जमाने में जिसे विचारधारा समझा जाता है वो साथियों के लिए एक कला है। निष्क्रियता की मुद्रा में सक्रिय हो लेने को और विरोध की ढपली के साथ आरती का घंटा ठोक लेने को जो साध ले वह साथी बड़ा कलाकार होता है। वैसे यहां कुंभ में भीड़ बहुत है और भीड़ में अवसर असीम होते हैं। नए-पुराने तमाम कलाकार कब भीग कर निकल रहे हैं ये किसी को पता नहीं पड़ रहा है।
लच्छू साथी पुराने कलाकार हैं, यह उनका शायद दसवां कुंभ स्नान है। प्रगतिशीलता के आरंभिक गफलत भरे दिनों को छोड़ दें तो जब से उन्होंने वाकई होश सम्हाला, कोई कुंभ स्नान नहीं छोड़ा है। बताते हैं कि शुरू में उन्हें किसी नें देखा नहीं, जिन्होंने देखा उन्होंने पहचाना नहीं और जिन्होंने पहचान लिया वे साथी साथ हो लिए। किसी ने ठीक ही कहा है, ‘‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’’ । मोक्ष सबको चाहिए, अखाड़े इसी तरह बनते हैं, साथी-अखाड़ा भी बना। मैले कुर्ते-पैजामे का चलन अब खत्म हो चला है लेकिन लच्छू साथी आज इसी लिबास में हैं। महा-मार्क्स-सेश्वर की प्रवेशवाई और पहला शाही स्नान भी शुभ मुहुर्त में हो चुका है। हालांकि यह सब धूमधाम से होता तो उसकी बात और होती लेकिन जनविचार के कारण बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ता है। अंदर ही अंदर मन कसक रहा है। किन्नरों तक ने बड़े गाजेबाजे से प्रवेशवाई की लेकिन उनके अखाड़े को छुपछुपा कर आना पड़ा। वैसे देखा जाए तो दिक्कत की कोई बात नहीं है। मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है, शोषण का साधन भी कहा है लेकिन नहाने के बारे में कुछ नहीं कहा है, ....... और इतना काफी है। इधर नहाने से पाप घुल रहे हैं और साधु-संत तक अपने घो रहे हैं तो कामरेड किनारे खड़े देखता क्यों रहे। कल अवसरों को परखने वाली नई पीढ़ी सुनेगी तो मूर्ख ठहराएगी। यहां तो घाट खुल्ले हैं, कोई कह नहीं रहा है कि बड़े पापी पहले नहाएंगे या छोटे बाद में। फिर भी साथियों के मन में अपराधबोध नहीं आ जाए इसलिए रामघाट पर नहीं आमघाट नहाने का निर्णय लिया गया है और दो दो डुबकी मार्क्स -एंजेल के नाम की भी लगाई जा रही है।
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