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शिक्षा और संस्कृति

20 जून 2021

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शिक्षण संस्थान ज्ञान के मन्दिर है मंदिर इसलिए कि ज्ञान से पवि= सृष्टि में और कुछ है ही नहीं।" हिं ज्ञानेन सद`शं पवित्र मिह वि|ते। वेद कहता है कि ज्ञान और ब्रह्मा पर्यायवाची शंकराचार्य भी यही कहते है कि ब्रह्म ज्ञान मा= है। ज्ञान का आधार विद्या है। शिक्षित व्यक्ति ही किसी देश की संस्कृति और सभ्यता है। इस देश में ज्ञान का सम्मान कितना है कि वेदव्यास. वाल्मीकि, पाणिनी पतंजलि जैसे मुनियो को भगवान मान लिया। क्योंकि ज्ञान व्यक्ति को मिथ्या दृष्टि से मुक्त कराता है। जीवन तथा ईश्वर में आस्था पैदा करता है। समाज विरोधी तत्वों को ज्ञान के प्रभाव से दबा देने की शक्ति प्राप्त करता है। व्यक्ति सवयं से परिचrकरके ही सवतंत्र हो सकता है। हमारे अध्यात्मd के चार भाग है- आत्मा-मन-बुद्धि और शरीर शरीर और बुद्धि शिक्षा में तथा आत्मा और मन धर्म विषय बन गए शिक्षा धर्मनिरपेक्ष हो गई। तब व्यक्ति स्व-धर्म की पहचान कहां सीखेगा। शिक्षा के मूल धरातल आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक-तो खो ही गए। व्यक्तित्व विकास पीछे पट गया। योग- झेम की परिभाषा ही बदल गई। ज्ञान छूट गया, विज्ञान रह गया, ब्रह्म छुट गया। माया रह गई। सम छू गया, कृति रह गई। यानी, संस्कृति खण्डखण्ड हो गई। बीस साल तक किया गया श्रम औरा लगायाया धन जीवन संघर्ष में व्यक्ति के काम नहीं आएगा।

जीवन का लक्ष्य -

शास्त कहते हैं- जन्म जातये वित्र संस्काराद द्विज उच्चते जीवन का लक्ष्य है अभ्युदय और निःश्रेयस। इसी को योग क्षेम कहते है। विद्या ds ;ks से अविद्या के आवरण हटाना आत्मा साक्षात्कार करना ही पुरुषार्थ का लक्ष्य है। आज शिक्षा में पुरुषम् प्रकृति का स्वरन्पही नहीं रहा। समय बदलावालातासमय के साथ आवर सकता भी बदलती हैाजेगाव द्वापर में राम एवं कृष्ण मी ज्ञान की प्राप्ति के लिए वाल्मीकि गाव संदीपनी के आश्रम में जाते थे। गुरुकुल समाt से मिली शिक्षा पर आश्रित रहते थे द्वापर के अन्त में ही शिक्षक घर आकर पारिश्रमिक के बदले मे शिक्षित करने लग गये। द्रोणाचार्य अब सभी को शिक्षा नहीं दे सकते एकलव्य को और नहीं कर्ण को। सुदामा का साथ छूट गया। दूर्योधन भी पैदा होने लग गए आश्रम में यह संभव नहीं था। पात्रता के अनुरूप शिक्षा ही जाती थी। महाभारत के साथ ही गया । शिक्षा में कुछ काल तक धर्म की भूमिका भी बढी अंग्रेजों ने नई व्यवस्था बनाई। शिष्य गुरू के घराजाएगा न ही गुरु शिष्य के घर | अब विद्यालय खड़े कर दिए। समय पढाई का तय हो गया, विषय तय हो गया वेद के गुरूव शिष्याशब्द भी विदा हो गयाA लंदन के ईडन विद्यालय के लिए प्रसिद्ध था यहां के छात्र ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनते थे | आज वर्तमान समय में खुले विश्वविद्यालय उपलब्ध है, नहीं गुरू को जानने की जरूरत है नहीं शिष्य को जानने की। आज कल डिग्री घर बैठे ही जाती है। इसी मे आगे डिग्रियां खरीदने की व्यवस्था हो गई। कई बार तो फीस देते ही कोर्स व डिग्री घर बैठ ही आ जाते है आज कल अधिकांश शिक्षण संस्थाएं अनुदान- आश्रित है। अनेक कासीमाओं और राजनीतिक समीकरणों में बंधी हैं। यहां तक की पाठयपुस्तक में पुस्तको का चयन भी अधिकारी नेता ही तय करते है वही नीतियां बनाते हैं। शिक्षक चुप रहने को मजबूर हो गया इसमें शिक्षक, साहित्यकारों व ऋषि-मुनियों का आदर सत्कार कम हो गया। शिक्षण संस्थाओं में स्वायत्तता सभी स्वच्छन्दता बन गई शिक्षको के सरकारी सर्वपल्ली राधाकृष्ण की तरह से राष्ट्रपति नही बन सकते। शिक्षा देना और ग्रहण करना दोनों ही हमारे यहां तो धर्म की श्रेणी में आते हैं| मादेवी वर्मा बनारस में वेद पढ़ने गई तब वहां स्त्रियों को वेद नहीं पढ़ाया जाता था | इनके लिए कक्षा में पर्दा लगाया गया पर्दे के पीछे बैठकर महादेवीजी न वेदो का अध्ययन किया|

बिना येगोपवीत धारण कि, व्यक्ति स्त्री को भी वेका शिक्षा नहीं दी जा सकती थी कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो सीतारामजी को जब कार्य सौंपा तो वहा तैयार ही नहीं हुए। बाद में उन्हें मना तो लिया गया परन्तु वे परम्परा पर अड़े रहे। कक्षा से बाहर आते ही गंगा किनारे जाते सिर मुंडवाकर गंगा स्नान करते तब घर जाकर खाना खाते थे गृहण पूजा का कार्य था शिक्षक पुजारी। तब लोग शिक्षक के चरण छूते थे

गुरु के लिए कबीर ने लिखा है—

हर घj मेरा साईया सूनी सेज न कोय

वां घट की बालहारियां जां घट परगट होय॥

गुरू में ही ईश्वर का प्राकटय कहा गया है।

नीतिशास्त में भी मन की दो दिशाएं कही है। एक विद्या तो दूसरी अविद्या। एक ओर तो विद्या से विवाद बढ़ता है तो दूसरी ओर ज्ञान एक ओर धन से मंद बढ़ता है, तो दूसरी ओर रानी एक और शकि से पर- पीड़न में सुख माना जाता है दूसरी और रक्षण में। अतः महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षा ज्ञान,वेदशास्त्र आदि। को भी योग माना जाता था वर्तमान में शिक्षा का उपयोग किया जाता है। विद्या के महत्व पर कभी चर्चा नहीं होती थी। वेद के सHkh छह अंग बिना कारण जाने पढे जाते हैं। आज शिक्षा thवन को जीने के योग्य नहीं बना सकती। वह ब्रह्म का पर्याय नहीं है। उसमें रस माधुर्य संस्कार देने की क्षमता तथा अच्छा इंसान बनाने की ताकत नहीं है। शिक्षा डिग्री या नौकरी के आगे कुछ नहीं है। सभ्यता व संस्कृति तक नहीं शिक्षित व्यक्ति अधिक दु: खी दिखाई जान पडते है | भले ही प्रो. प्रोपर्टी डीलर बन गए हो। जीवन का आनन्द ही विद्या का योग है। ही विद्या कही जाती है। यही संस्कृति का मूल तथा वयक्तित्वे देश की पहचान बनती हैं। किसी भी फसल में खाद-पानी का तो उपयोग होता है।

शिक्षाऔरसंस्कृति

शिक्षण संस्थान ज्ञानकेमन्दिर है मंदिर इसलिएकिज्ञानसेपवि=सृष्टिमेंऔरकुछहैहीनहीं।"हिं ज्ञानेनसद`शं पवित्र मिहवि|ते।वेदकहताहैकिज्ञानऔरब्रह्मापर्यायवाचीशंकराचार्यभीयहीकहतेहैकिब्रह्मज्ञानमा=है।ज्ञानकाआधारविद्याहै।शिक्षितव्यक्तिहीकिसीदेशकीसंस्कृतिऔरसभ्यताहै।इसदेशमेंज्ञानकासम्मानकितनाहैकिवेदव्यास. वाल्मीकि, पाणिनीपतंजलिजैसे मुनियो कोभगवानमानलिया।क्योंकिज्ञानव्यक्तिको मिथ्या दृष्टिसेमुक्तकराताहै।जीवनतथाईश्वरमेंआस्थापैदाकरताहै।समाजविरोधीतत्वोंकोज्ञानकेप्रभावसेदबादेनेकीशक्तिप्राप्तकरताहै।व्यक्ति सवयं सेपरिचrकरकेही सवतंत्र होसकताहै।हमारेअध्यात्मdकेचारभागहै- आत्मा-मन-बुद्धिऔरशरीरशरीरऔरबुद्धिशिक्षामें तथा आत्माऔरमनधर्मविषयबनगएशिक्षाधर्मनिरपेक्षहोगई।तबव्यक्तिस्व-धर्मकीपहचानकहांसीखेगा।शिक्षाकेमूलधरातलआधिदैविकआधिभौतिकआध्यात्मिक-तोखोहीगए।व्यक्तित्वविकासपीछेपटगया।योग- झेमकीपरिभाषाहीबदलगई।ज्ञानछूटगया, विज्ञानरहगया, ब्रह्मछुटगया।माया रहगई।सम छूगया, कृतिरहगई।यानी, संस्कृतिखण्डखण्डहोगई।बीससालतककियागया श्रम औरालगायायाधनजीवनसंघर्षमेंव्यक्तिकेकामनहींआएगा।

जीवनकालक्ष्य-

शास्तकहतेहैं- जन्मजातये वित्र संस्काराद द्विज उच्चतेजीवनकालक्ष्यहैअभ्युदयऔरनिःश्रेयस।इसीकोयोगक्षेमकहतेहै।विद्याds ;ksसेअविद्याकेआवरणहटाना आत्मा साक्षात्कारकरनाहीपुरुषार्थकालक्ष्यहै।आजशिक्षामेंपुरुषम्प्रकृतिकास्वरन्पहीनहींरहा।समयबदलावालातासमयकेसाथआवरसकताभीबदलतीहैाजेगावद्वापरमेंरामएवंकृष्णमीज्ञानकीप्राप्तिकेलिएवाल्मीकिगावसंदीपनीके आश्रम में जाते थे। गुरुकुलसमाt से मिली शिक्षा पर आश्रित रहते थे द्वापर के अन्त में ही शिक्षकघर आकरपारिश्रमिक के बदले मेशिक्षित करने लग गये। द्रोणाचार्य अब सभी को शिक्षा नहीं दे सकते एकलव्य को और नहीं कर्ण को। सुदामा का साथ छूट गया। दूर्योधन भी पैदा होने लग गए आश्रम में यह संभव नहीं था। पात्रता के अनुरूप शिक्षा ही जाती थी। महाभारत के साथ ही गया । शिक्षा में कुछ काल तक धर्म की भूमिका भी बढी अंग्रेजों ने नई व्यवस्था बनाई।शिष्य गुरू के घराजाएगा नहीगुरु शिष्य के घर | अब विद्यालय खड़े कर दिए। समय पढाईका तय हो गया, विषयतय हो गया वेद के गुरूव शिष्याशब्द भी विदा हो गयाA लंदनके ईडन विद्यालय के लिए प्रसिद्ध था यहां के छात्र ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनते थे | आज वर्तमान समय में खुलेविश्वविद्यालय उपलब्ध है, नहीं गुरू को जानने की जरूरत हैनहीं शिष्य को जानने की। आज कल डिग्री घर बैठेही जाती है। इसी मे आगे डिग्रियां खरीदने की व्यवस्था हो गई।कई बार तो फीस देते ही कोर्स वडिग्री घर बैठ ही आ जाते है आज कल अधिकांश शिक्षण संस्थाएं अनुदान- आश्रित है। अनेक कासीमाओं और राजनीतिक समीकरणों में बंधी हैं। यहां तक की पाठयपुस्तक में पुस्तको का चयन भी अधिकारी नेता ही तयकरते है वही नीतियां बनाते हैं। शिक्षकचुप रहने को मजबूर हो गया इसमें शिक्षक, साहित्यकारों व ऋषि-मुनियोंका आदर सत्कार कम हो गया। शिक्षण संस्थाओं में स्वायत्तता सभी स्वच्छन्दता बन गई शिक्षको के सरकारी सर्वपल्ली राधाकृष्णकी तरह से राष्ट्रपति नही बन सकते। शिक्षा देना और ग्रहण करना दोनों ही हमारे यहां तो धर्म की श्रेणी में आते हैं| मादेवी वर्मा बनारस में वेद पढ़ने गई तब वहां स्त्रियों को वेद नहीं पढ़ाया जाता था | इनके लिए कक्षा में पर्दा लगाया गया पर्दे के पीछे बैठकर महादेवीजी न वेदो का अध्ययन किया|

बिना येगोपवीत धारण कि, व्यक्ति स्त्री को भी वेका शिक्षा नहीं दी जा सकती थी कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो सीतारामजी को जब कार्य सौंपा तो वहा तैयार ही नहीं हुए। बाद में उन्हें मना तो लिया गया परन्तु वे परम्परा पर अड़े रहे। कक्षा से बाहर आते ही गंगा किनारे जातेसिर मुंडवाकर गंगा स्नान करतेतब घर जाकर खाना खाते थे गृहण पूजा का कार्य था शिक्षक पुजारी। तब लोग शिक्षक के चरण छूते थे

गुरु के लिए कबीर ने लिखा है—

हर घj मेरा साईयासूनी सेज न कोय

वां घट की बालहारियांजां घट परगट होय॥

गुरू में ही ईश्वर का प्राकटय कहा गया है।

नीतिशास्त में भी मन की दो दिशाएं कही है। एक विद्या तो दूसरी अविद्या। एक ओर तो विद्या से विवाद बढ़ता हैतो दूसरी ओर ज्ञान एक ओर धन से मंद बढ़ता है, तो दूसरी ओर रानी एक और शकि से पर- पीड़न में सुख माना जाता हैदूसरी और रक्षण में। अतः महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षाज्ञान,वेदशास्त्र आदि। को भी योग माना जाता थावर्तमान में शिक्षा का उपयोग किया जाता है। विद्या के महत्व पर कभी चर्चा नहीं होती थी। वेद के सHkh छह अंग बिना कारण जाने पढे जाते हैं। आज शिक्षा thवन को जीने के योग्य नहीं बना सकती। वह ब्रह्म का पर्याय नहीं है। उसमें रसमाधुर्यसंस्कार देने की क्षमता तथा अच्छा इंसान बनाने की ताकत नहीं है। शिक्षा डिग्री या नौकरी के आगे कुछ नहीं है। सभ्यता व संस्कृति तक नहीं शिक्षित व्यक्ति अधिक दु: खी दिखाई जान पडते है | भले ही प्रो. प्रोपर्टी डीलर बन गए हो। जीवन का आनन्द ही विद्या का योग है। ही विद्या कही जाती है। यही संस्कृति का मूल तथा वयक्तित्वे देश की पहचान बनती हैं। किसी भी फसल में खाद-पानी का तो उपयोग होता है।

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कैलाशरामसांगवा

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