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सोम

15 सितम्बर 2022

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सोम के विषय में आदरणीय अरुण मानव जी ने आज जिज्ञासा प्रकट की है। यहाँ सोम को लेकर कुछ विमर्श: जितना थोड़ा-बहुत जान पाया अब तक। यह सम्पूर्ण नहीं।

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    सोम : हमारे आनंद का अक्षय स्रोत

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ऋग्वेद में कुल दस मण्डल हैं,और उनमें एक सम्पूर्ण मण्डल ही 'सोम' के लिये है। वैसे तो 'सोम की व्याप्ति पूरे वैदिक वाङ्मय में है। ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद में सोम का महिमा-गान बहुत ही सुंदर तरीके से हुआ है। सबसे अधिक चकित करने वाला तथ्य यह है कि ऋग्वेद का नवम मण्डल, जिसमें ११४ सूक्त हैं, अकेले सोम की प्रशस्ति में है। ऐसा और किसी भी देवता के साथ नहीं। इन्द्र और अग्नि इतने प्रभावी हैं,लेकिन सोम की तरह इनके लिये पूरा का पूरा मण्डल तो नहीं मिलता। नवम मण्डल में सोम को निवेदित होने वाले प्रमुख ऋषियों में मधुच्छन्दा, हिरण्यस्तूप, प्रियमेध, रहूगण, अयास्य, जमदग्नि, काश्यप,गोतम, अत्रि, विश्वामित्र, वसिष्ठ, कक्षीवान्, उशना सहित अनेक हैं,जिनकी आभा से ही वैदिक ऋचाएँ प्रदीप्त हैं। इन ऋषियों में वे भी हैं, जो सप्तर्षियों में हैं। यहाँ एक सूक्त तो ऐसा भी मिलता है, जो सप्तर्षि द्वारा गाया गया।


सोम को इतना महत्व क्यों दिया गया? सोम यदि केवल एक लता है, औषधि है या मूजवान पर्वत पर पायी जाने वाली किसी वानस्पतिक जाति में आने वाला एक नाम है, या मादक स्फूर्ति देने वाले किसी द्रव का एक घटक है, तो ऋग्वेद जैसे पवित्र धर्मग्रंथ का एक पूरा का पूरा अध्याय सोम को समर्पित कैसे कर दिया गया। सबके सब ऋषि सोम की स्तुति क्यों करने लगे। इस विषय में मनीषियों ने विचार तो किया है,लेकिन सोम को लेकर रचे गये बाद के पूर्वाग्रहों को तोड़कर वे निष्कर्ष सामने नहीं लाये जा सके,जो सोम की सर्वोच्च सत्ता के साथ न्याय करते हों।


हमारे युग के ऋषि श्री अरविन्द ने 'सोम' की दिव्यता के सूत्रों को पकड़ कर यह दिखा दिया है कि सोम आश्चर्यजनक तरीके से आनंद और अमरता का अधिपति है। सोम द्युलोक से छन कर पृथ्वी पर उतरता है । वह जल में, पौधों में,अन्न में, फलों में और सब पार्थिव उपचयों में उतर जाता है । वह मनुष्य के शरीर में भी सीधे ही उतरना चाहता है, किन्तु  प्रत्येक मानव शरीर सोम के घनत्व को वहन करने में समर्थ नहीं । जो मनुष्य कच्चे घड़े की तरह है,वह उस अमृत को सहेज ही नहीं सकता। जो सच्चा पुरुषार्थ करता है,श्रमपूर्वक आग में तपता है,वही सोम का सवन करता है और वही अमृतस्नान करता है। नवम मंडल के एक सूक्त में एक ऋषि,जिनका नाम ही 'पवित्र ' है, सोम को आत्मा के स्वामी के रूप में संबोधित करते हुए यही तो कह रहे हैं- "पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वत:।अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत।।"(९.८३.१.)


वैदिक ऋषियों के अनुसार सोम ही वह परमपिता है,जो नाना रंगों में प्रकट होते हैं, सोम ही उषाओं को स्वर्णिम वेश प्रदान करता है, सोम ही वह यज्ञनारायण है जो पृथ्वीलोक पर अमृतकलश छलकाता है, वही है जो विश्व के गर्भ में शिशु की भाँति आ बैठता है। वैदिक ऋषियों को सोम कभी गन्धर्व की तरह दिखाई देते हैं, कभी आनंदमयलोक की सेनाओं के अध्यक्ष की तरह दिखाई देते हैं, कभी वे यह अनुभव करते हैं कि सोम विश्व के महाचैत्य के चारों ओर पहरा दे रहे हैं, और कभी उन्हें लगता है कि सोम किसी दिव्य जन्म की रक्षा में खड़े हैं।


उपनिषदों  में आनंदब्रह्म को लेकर जितने भी विवरण हैं, वे सब सोम को लेकर है। 'रसो वै सः',यह सूत्रवाक्य सोम की ओर ही इंगित करता है। श्री अरविन्द जब बताते हैं कि 'सोमरस का कलश मनुष्य के भौतिक शरीर का प्रतीक है' तो फिर धीरे-धीरे सोम के रहस्य से पर्दा उठता है। श्री अरविन्द के अनुसार शरीर में उंडेला हुआ दिव्य जीवन का रस एक तीव्र ,उमड़ कर प्रवाहित होने वाला और प्रचंड आनंद है। उस शरीर में यह नहीं थामा जा सकता जो संघर्षो में तपा नहीं और जो कठोर तपस्याओं और अनुभवों द्वारा इसके लिये तैयार नही हुआ। सोम को आनंद का विशाल घर कहा गया है, उज्ज्वल प्रकाश का घर कहा गया है, प्रेमका घर कहा गया है। सोम आकाश को ओढ़े हुए है, और विश्व यज्ञ की अखंड परिक्रमा लगाते हुए अमरता के साम्राज्य को जीत कर हमारे ऊपर न्यौछावर करने के संकल्प से भरा हुआ है।


श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'कवियों में मैं उशना हूँ।' उशना कवि सोम-स्तवन करते हुए कहते हैं- "ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन। स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम्।।(ऋग्वेद ९.८७.३.) इस ऋचा के भाव देखिए। 'हे सोम! तुम ऋषि हो, विप्र हो। हम सब लोगों के पथ-प्रदर्शक तुम ही हो। तुम्हारे अंतरंग से अमृत-रश्मियाँ फूट रही हैं। तुम ज्योतिर्मय विश्व काव्य की तरह सर्वत्र व्याप्त हो। तुम ही वेद हो,तुम ही गुह्यविद्या हो।'


'सोम' प्रकृति की अनवरत साधना की फलस्वरूपा सिद्धि है। इसे अखंड रस के निर्झर के रूप में देखा गया,इसे पुरुषार्थ के द्वारा निचोड़ा गया, उत्साह और उमंग की रहस्यमयी मदिरा के रूप में इसे वर्णित किया गया। यह एक ऐसा पवित्र रसायन है, जिसका स्वाद बिना तपस्या और बिना साधना के चखा ही नहीं जा सकता। वेदों में उल्लेख है कि ऋषि सोम को अपने जीवन में निष्पन्न कर वे उसे स्वयं ग्रहण नहीं करते हुए देवताओं को समर्पित कर देते थे। वे देवताओ को सोमपान के लिये बुलाते थे। इसका आशय यह भी है कि सोम दिव्य चेतना को संतृप्त करने वाला अमृत है। यह चेतना की अमृत संजीवनी है।


तब फिर हम सोम का क्या अर्थ ले। क्या यह दो पत्थरों के बीच पीस कर निकाला गया मादक पेय नहीं है? क्या समराङ्गण में जाने से पहले योद्धा सोमपान नहीं करते थे? क्या यह उत्साह और उमंग से भर देने वाला कोई तरल उत्पाद नहीं है, जिसके विज्ञापन के लिये ऋग्वेद का पूरा नवम मंडल रचा गया? 


सोम के रहस्य में प्रवेश करने के लिये हमें नयी तैयारी के साथ सोम के सूक्तों मे जाना ही होगा, क्योंकि इसका सम्बन्ध हमसे है, हमारे जीवन की तरंगों से है, हमारी चेतना से है,प्रेम और प्रकाश से भरे हुए उस उत्साह से है जो हमारे अभ्युदय का कारक है, उस आनंद से है जो हमारा अभीष्ट है। सोम हमारी तंद्रा को तोड़ता है और ज्योतिर्मय पथ पर ले चलने का दायित्व उठाता है। सोम असत्य के बाड़े में से निकाल कर हमें सत्य के उजाले में ले आता है। वह हमारे मृत्यु के बंधनों को छिन्न-भिन्न कर आत्मा के आनंद में रमण करने की पात्रता देता है। वह हमारे लिये तपस्या का मार्ग खोल देता है, और हमें दिव्य जीवन के लिये तैयार करता है। सोम हमारे आनंद का अक्षय स्रोत है, उस स्रोत का अधिपति है। वह हमारे भीतर प्रवाहमान होना चाहता है। वह हमारे जीवन को शुष्क और नीरस होने से बचाने के लिये आना चाहता है। वैदिक ऋषियों ने चाहा था कि मनुष्य का जीवन सोम का सरस और निर्मल प्रवाह हो। 


सोम की तरंगें उछालते हुए हमारे ऋषि आत्मा के आनंद में निवासरत हैं और आज भी अमर हैं।



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